Friday, 17 March 2017

क़ासिम सआदत हसन मन्टो saadat hasan manto

बावर्चीख़ाना की मटमैली फ़िज़ा में बिजली का अंधा सा बल्ब कमज़ोर रोशनी फैला रहा था। स्टोव पर पानी से भरी हुई केतली धरी थी। पानी का खोलाओ और स्टोव के हलक़ से निकलते हुए शोले मिल जुल कर मुसलसल शोर बरपा कररहे थे। अंगीठियों में आग की आख़िरी चिनगारियां राख में सोगई थीं। दूर कोने में क़ासिम ग्यारह बरस का लड़का बर्तन मांझने में मसरूफ़ था। ये रेलवे इन्सपैक्टर साहब का ब्वॉय था।

बर्तन साफ़ करते वक़्त ये लड़का कुछ गुनगुना रहा था। ये अल्फ़ाज़ ऐसे थे जो उस की ज़बान से बग़ैर किसी कोशिश के निकल रहे थे।

“जी आया साहब! जी आया साहब!........ बस अभी साफ़ हो जाते हैं साहब।”

अभी बर्तनों को राख से साफ़ करने के बाद उन्हें पानी से धो कर करीने से रखना भी था। और ये काम जल्दी से न हो सकता था। लड़के की आँखें नींद से बंद हुई जा रही थीं। सर सख़्त भारी होरहा था मगर काम किए बगै़र आराम.... ये क्योंकर मुम्किन था।

स्टोव बदस्तूर एक शोर के साथ नीले शोलों को अपने हलक़ से उगल रहा था। केतली का पानी उसी अंदाज़ में खिलखिला कर हंस रहा था।

दफ़अतन लड़के ने नींद के नाक़ाबिल-ए-मग़्लूब हमले को महसूस करके अपने जिस्म को एक जुंबिश दी। और “जी आया साहब” गुनगुनाता फिर काम में मशग़ूल होगया।

दीवार गेरियों पर चुने हुए बर्तन सोए हुए थे। पानी के नल से पानी की बूंदें नीचे मैली सिल पर टपक रही थीं और उदास आवाज़ पैदा कररही थीं। ऐसा मालूम होता था कि फ़िज़ा पर ग़नूदगी सी तारी है। दफ़ातन आवाज़ बुलंद हुई।

“क़ासिम!........ क़ासिम!”

“जी आया साहब!” लड़का इन ही अल्फ़ाज़ की गर्दान कररहा था भागा भागा अपने आक़ा के पास गया।

इन्सपैक्टर साहब ने गर्ज कर कहा। “बेवक़ूफ़ के बच्चे आज फिर यहां सुराही और गिलास रखना भूल गया है।”

“अभी लाया साहब........ अभी लाया साहब।”

कमरे में सुराही और गिलास रखने के बाद वो अभी बर्तन साफ़ करने के लिए गया ही था कि फिर उसी कमरे से आवाज़ आई।

“क़ासिम........क़ासिम!”

“जी आया साहब!” क़ासिम भागता हुआ फिर अपने आक़ा के पास गया।

“बंबई का पानी किस क़दर ख़राब है........ जाओ पार्सी के होटल से सोडा लेकर आओ। बस भागे जाओ। सख़्त प्यास लग रही है।”

“बहुत अच्छा साहब।”

क़ासिम भागा भागा गया और पार्सी के होटल से, जो घर से क़रीबन निस्फ़ मेल के फ़ासले पर था, सोडे की बोतल ले आया और अपने आक़ा को गिलास में डाल कर दे दी।

“अब तुम जाओ। मगर उस वक़्त तक क्या कर रहे हो? बर्तन साफ़ नहीं हुए क्या?”

“अभी साफ़ हो जाते हैं साहब!”

“बर्तन साफ़ करने के बाद मेरे दोनों काले शो पॉलिश करदेना। मगर देखना एहतियात रहे। चमड़े पर कोई ख़राश न आए। वर्ना.... ”

क़ासिम को वर्ना के बाद जुमला बख़ूबी मालूम था। “बहुत अच्छा साहब” कह कर वो बावर्चीख़ाना में चला गया और बर्तन साफ़ करने शुरू कर दिए।

अब नींद उस की आँखों में सिमटी चली आरही थी। पलकें आपस में मिली जा रही थीं, सर में पिघला हुआ सीसा उतर रहा था........ ये ख़याल करते हुए कि साहब के बूट भी अभी पॉलिश करने हैं क़ासिम ने अपने सर को ज़ोर से जुंबिश दी और वही राग अलापना शुरू कर दिया।

“जी आया साहब। जी आया साहब! बूट साफ़ हो जाते हैं साहब।”

मगर नींद का तूफ़ान हज़ार बंद बांधने पर भी न रूका। अब उसे महसूस हुआ कि नींद ज़रूर ग़ल्बा पाके रहेगी। पर अभी बर्तनों को धो कर उन्हें अपनी जगह पर रखना बाक़ी था। जब उस ने ये सोचा तो एक अजीब-ओ-ग़रीब ख़याल उस के दिमाग़ में आया। “भाड़ में जाएं बर्तन और चूल्हे में जाएं शो.... क्यों ना थोड़ी देर इसी जगह सौ जाऊं और फिर चंद लम्हा आराम करने के बाद.... ”

इस ख़याल को बाग़ियाना तसव्वुर करके क़ासिम ने तर्क कर दिया। और बर्तनों पर जल्दी जल्दी राख मलना शुरू करदी।

थोड़ी देर के बाद जब नींद फिर ग़ालिब आई तो उस के जी में आई कि उबलता हुआ पानी अपने सर पर उंडेल ले। और इस तरह इस ग़ैर मरई ताक़त से जो इस काम में हायल हो रही थी नजात पा जाये........ मगर पानी इतना गर्म था कि उस के भेजे तक को पिघला देता। चुनांचे मुँह पर ठंडे पानी के छींटे मार मार कर उस ने बाक़ीमांदा बर्तन साफ़ किए। ये काम करने के बाद उस ने इत्मिनान का सांस लिया। अब वो आराम से सौ सकता था और नींद.... वो नींद, जिस के लिए उस की आँखें और दिमाग़ इस शिद्दत से इंतिज़ार कर रहे थे अब बिलकुल नज़दीक थी।

बावर्चीख़ाने की रोशनी गुल करने के बाद क़ासिम ने बाहर बरामदे में अपना बिस्तर बिछा लिया और लेट गया। इस से पहले कि नींद उसे अपने नरम नरम बाज़ूओं में थाम ले इस के कान शो शो की आवाज़ से गूंज उठे।

“बहुत अच्छा साहब। अभी पालिश करता हूँ। क़ासिम हड़बड़ा के उठ बैठा।”

अभी क़ासिम शू का एक पैर भी अच्छी तरह पॉलिश करने न पाया था कि नींद के ग़ल्बा ने उसे वहीं सुला दिया।

सूरज की लाल लाल किरणें मकान के शीशों से नमूदार हुईं। मगर क़ासिम सोया रहा।

जब इन्सपैक्टर साहब ने अपने नौकर को बाहर बरामदे में अपने काले जूतों के पास सोया देखा तो उसे ठोकर मार के जगाते हुए कहा। “ये सुवर की तरह यहां बेहोश पड़ा है और मुझे ख़याल था कि इस ने शो साफ़ कर लिए होंगे.... ”

“नमक हराम!.... अबे क़ासिम।”

“जी आया साहब!”

क़ासिम फ़ौरन उठ बैठा। हाथ में जब उस ने पॉलिश करने का बरशश देखा और रात के अंधेरे की बजाय दिन की रोशनी देखी तो उस की जान ख़ता होगई।

“मैं सौ गया था साहब! मगर.... मगर शू अभी पॉलिश हो जाते हैं साहब।”

ये कह कर उस ने जल्दी जल्दी पॉलिश करना शुरू कर दिया।

पॉलिश करने के बाद उस ने अपना बिसतरबंद किया और उसे ऊपर के कमरे में रखने चला गया।

“क़ासिम!”

“जी आया साहब!”

क़ासिम भागा हुआ नीचे आया। और अपने आक़ा के पास खड़ा होगया।

“देखो आज हमारे यहां मेहमान आयेंगे इस लिए बावर्चीख़ाना के तमाम बर्तन अच्छी तरह साफ़ कर रखना। फ़र्श धुला हुआ होना चाहिए। इस के इलावा तुम्हें ड्राइंगरूम की तस्वीरें, मेज़ें और कुर्सियां भी साफ़ करना होंगी........ समझे! ख़याल रहे मेरी मेज़ पर एक तेज़ धार वाला चाक़ू पड़ा है, उसे मत छेड़ना! मैं अब दफ़्तर जा रहा हूँ। मगर ये काम दो घंटे से पहले पहले हो जाये।”

“बहुत बेहतर साहब।”

इन्सपैक्टर साहब दफ़्तर चले गए। क़ासिम बावर्चीख़ाना साफ़ करने में मशग़ूल होगया।

डेढ़ घंटे की अनथक मेहनत के बाद उस ने बावर्चीख़ाना का सारा काम ख़त्म कर दिया। और हाथ पांव साफ़ करने के बाद झाड़न लेकर ड्राइंगरूम में चला गया।

वो अभी कुर्सीयों को झाड़न से साफ़ कर रहा था कि उस के थके हुए दिमाग़ में एक तस्वीर सी खिच गई। क्या देखता है कि इस के गिर्द बर्तन ही बर्तन पड़े हैं और पास ही राख का एक ढेर लग रहा है। हवा ज़ोरों पर चल रही है जिस से वो राख उड़ उड़ कर फ़िज़ा को ख़ाकसतरी बना रही है। यकायक इस ज़ुल्मत में एक सुर्ख़ आफ़ताब नुमूदार हुआ जिस की किरणें सुर्ख़ बरछियों की तरह हर बर्तन के सीने में घुस गईं। ज़मीन ख़ून से शराबोर होगई।

क़ासिम दहश्त ज़दा होगया। और इस वहशत नाक तसव्वुर को दिमाग़ से झटक कर “जी आया साहब, जी आया साहब” कहता फिर अपने काम में मशग़ूल होगया।

थोड़ी देर के बाद उस के तसव्वुर में एक और मुंतज़िर रक़्स करने लगा। छोटे छोटे लड़के आपस में कोई खेल खेल रहे थे। दफ़अतन आंधी चलने लगी जिस के साथ ही एक बद-नुमा और भयानक देव नुमूदार हुआ। ये दीवान सब लड़कों को निगल गया। क़ासिम ने ख़याल कि वो देव इस के आक़ा के हमशकल था। गो कि क़द-ओ-क़ामत के लिहाज़ से वो उस से कहीं बड़ा था। अब उस देव ने ज़ोर ज़ोर से डकारना शुरू किया। क़ासिम सर से पैर तक लरज़ गया।

अभी तमाम कमरा साफ़ करना था। और वक़्त बहुत कम रह गया था। चुनांचे क़ासिम ने जल्दी जल्दी कुर्सीयों पर झाड़न मारना शुरू किया। कुर्सीयों का काम ख़त्म करने के बाद वो मेज़ साफ़ करने के लिए बढ़ा तो उसे ख़याल आया। आज मेहमान आरहे हैं। ख़ुदा मालूम कितने बर्तन साफ़ करना पड़ेंगे। नींद कम्बख़्त फिर सताएगी। मुझ से तो कुछ भी न हो सकेगा....

वो ये सोच रहा था और मेज़ पर रखी हुई चीज़ों को पूंछ रहाथा। अचानक उसे क़लमदान के पास एक खुला हुआ चाक़ू नज़र आया........ वही चाक़ू जिस के मुतअल्लिक़ उस के आक़ा ने कहा था बहुत तेज़ है, चाक़ू का देखना था कि उस की ज़बान पर ये लफ़्ज़ ख़ुदबख़ुद जारी होगए........ चाक़ू तेज़ धार चाक़ू! यही तुम्हारी मुसीबत ख़त्म कर सकता है।

कुछ और सोचे बग़ैर क़ासिम ने तेज़ धार चाक़ू उठा के अपनी उंगली पर फेर लिया। अब वो शाम को बर्तन साफ़ करने की ज़हमत से बहुत दूर था और नींद.... प्यारी प्यारी नींद उसे बाआसानी नसीब हो सकती थी।

उंगली से ख़ून की सुर्ख़ धार बह रही थी। सामने वाली दवात की सुर्ख़ रोशनाई से कहीं चमकीली। क़ासिम इस ख़ून की धार को मुसर्रत भरी नज़रों से देख रहा था। और मुँह में गुनगुना रहा था। “नींद, नींद........ प्यारी नींद।”

थोड़ी देर बाद वो भागा हुआ अपने आक़ा की बीवी के पास गया जो ज़नानखाना में बैठी सिलाई कर रही थी। और अपनी उंगली दिखा कर कहने लगा.... “देखिए बीबी जी”

“अरे क़ासिम ये तू ने क्या क्या?........ कमबख़्त, साहब के चाक़ू को छेड़ा होगा तू ने!”

क़ासिम मुस्कुरा दिया। बीबी जी........ बस मेज़ साफ़ कररहा था कि उस ने काट खाया।”

“सुवर अब हँसता है, इधर आ, मैं इस पर कपड़ा बांध दूं........ पर अब ये तो बता कि आज ये बर्तन तेरा बाप साफ़ करेगा?”

क़ासिम अपनी फ़तह पर जी ही जी में बहुत ख़ुश हुआ।

उंगली पर पट्टी बंधवा कर क़ासिम फिर कमरे में चला आया। मेज़ पर से ख़ून के धब्बे साफ़ करने के बाद उस ने ख़ुशी ख़ुशी अपना काम ख़त्म कर दिया। सामने तोते का पिंजरा लटक रहा था। उस की तरफ़ देख कर क़ासिम ने मुसर्रत भरे लहजा में कहा। “अब उस नमक हराम बावर्ची को बर्तन साफ़ करने होंगे........और ज़रूर साफ़ करने होंगे। क्यों मियां मिट्ठू?”

शाम के वक़्त मेहमान आए और चले गए। बावर्चीख़ाना में झूटे बर्तनों का एक तोमार सा लग गया। इन्सपैक्टर साहब क़ासिम की उंगली देख कर बहुत बरसे और जी खोल कर उसे गालियां दीं। मगर उसे मजबूर न कर सके........ शायद इस वजह से कि एक बार उन की अपनी उंगली में क़लम तराश चुभ जाने से बहुत दर्द हुआ था।

आक़ा की ख़फ़्गी आने वाली मुसर्रत ने भुला दी और क़ासिम कूदता फाँदता अपने बिस्तर पर जा लेटा। तीन चार रोज़ तक वो बर्तन साफ़ करने की ज़हमत से बचा रहा। मगर इस के बाद उंगली का ज़ख़म भर आया........ अब वही मुसीबत फिर नुमूदार होगई।

“क़ासिम........ साहब की जुराबें और क़मीज़ धो डालो।”

“बहुत अच्छा बीबी जी।”

क़ासिम इस कमरे का फ़र्श कितना मेला होरहा है। पानी लाकर अभी साफ़ करो। देखना कोई दाग़ धब्बा बाक़ी न रहे!

“बहुत अच्छा साहब।”

“क़ासिम, शीशे के गिलास कितने चिकने हो रहे हैं, इन्हें नमक से अभी अभी साफ़ करो।”

“अभी करता हूँ बीबी जी।”

“क़ासिम, अभी भंगन आरही है। तुम पानी डालते जाना। वो सीढ़ीयां धो डालेगी।”

“बहुत अच्छा साहब।”

“क़ासिम ज़रा भाग के एक आना का दही तो ले आना!”

“अभी चला बीबी जी।”

“पाँच रोज़ इस क़िस्म के अहकाम सुनने में गुज़र गए। क़ासिम काम की ज़्यादती और आराम के क़हत से तंग आगया। हर रोज़ उसे निस्फ़ शब तक काम करना पड़ता। फिर भी अलस्सुबाह चार बजे के क़रीब बेदार हो कर नाशते के लिए चाय तैय्यार करना पड़ती। ये काम क़ासिम की उम्र के लड़के के लिए बहुत ज़्यादा था।

एक रोज़ इन्सपैक्टर साहब की मेज़ साफ़ करते वक़्त इस का हाथ ख़ुदबख़ुद चाक़ू की तरफ़ बढ़ा। और एक लम्हा के बाद उस की अगली से ख़ून बहने लगा। इन्सपैक्टर साहब और उन की बीवी क़ासिम की इस हरकत पर सख़्त ख़फ़ा हुए। चुनांचे सज़ा की सूरत में उसे शाम का खाना न दिया गया। मगर क़ासिम ख़ुश था........ एक वक़्त रोटी न मिली। उंगली पर मामूली सा ज़ख़म आगया। मगर बर्तनों का अंबार साफ़ करने से तो नजात मिली गई........ ये सौदा क्या बुरा है?

चंद दिनों के बाद उस की उंगली का ज़ख़्म ठीक होगया। अब फिर काम की वही भरमार थी। पंद्रह बीस रोज़ गिद्धों की सी मशक़्क़त में गुज़र गए। इस अर्सा में क़ासिम ने बार-हा इरादा किया कि चाक़ू से फिर उंगली ज़ख़्मी करले। मगर अब मेज़ पर से वो चाक़ू उठा लिया गया था और बावर्चीख़ाना वाली छुरी कुन्द थी।

एक रोज़ बावर्ची बीमार पड़ गया। अब क़ासिम को हरवक़्त बावर्चीख़ाना में रहना पड़ा। कभी मिर्चें पीसता, कभी आटा गूँधता, कभी कोइले सुलगाता, ग़र्ज़ सुबह से लेकर शाम तक उस के कानों में “अबे क़ासिम ये कर! अबे क़ासिम वो कर!” की सदा गूंजती रहती।

बावर्ची दो रोज़ तक न आया.... क़ासिम की नन्ही सी जान और हिम्मत जवाब दे गई। मगर सिवाए काम के और चारा ही किया था।

एक रोज़ इन्सपैक्टर साहब ने उसे अलमारी साफ़ करने को कहा। जिस में अदवियात की शीशियां और मुख़्तलिफ़ चीज़ें पड़ी थीं। अलमारी साफ़ करते वक़्त उसे दाढ़ी मूंडने का एक ब्लेड नज़र आया। ब्लेड पकड़ते ही इस ने अपनी उंगली पर फेर लिया। धार थी बहुत तेज़ उंगली में दूर तक चली गई। जिस से बहुत बड़ा ज़ख़्म बन गया....

क़ासिम ने बहुत कोशिश की कि ख़ून निकलना बंद हो जाये मगर ज़ख़्म का मुँह बड़ा था। सैरों ख़ून पानी की तरह बह गया। ये देख कर क़ासिम का रंग काग़ज़ की मानिंद सपैद होगया। भागा हुआ इन्सपैक्टर साहब की बीवी के पास गया........

“बीबी जी, मेरी उंगली में साहब का उस्तरा लग गया है।”

जब इन्सपैक्टर साहब की बीवी ने क़ासिम की उंगली को तीसरी मर्तबा ज़ख़्मी देखा तो फ़ौरन मुआमले को समझ गई। चुपचाप उठी और कपड़ा निकाल कर उस की उंगली पर बांध दिया और कहा। “क़ासिम! अब तुम हमारे घर में नहीं रह सकते।”

“क्यों बीबी जी।”

“ये साहब से पूछना।”

साहब का नाम सुनते ही क़ासिम का रंग और पीला पड़ गया।

चार बजे के क़रीब इन्सपैक्टर साहब दफ़्तर से लौटे और अपनी बीवी से क़ासिम की नई हरकत सनु कर उसे फ़ौरन अपने पास बुलाया।

“क्यों मियां ये उंगली हर रोज़ ज़ख़्मी करने के क्या मानी?”

क़ासिम ख़ामोश खड़ा रहा।

“तुम नौकर लोग ये समझते हो कि हम अंधे हैं और हमें बार बार धोका दिया जा सकता है........ अपना बोरिया बिस्तर दबा कर नाक की सीध में यहां से भाग जाओ। हमें तुम जैसे नौकरों की ज़रूरत नहीं है........ समझे!”

“मगर........ मगर साहब।”

“साहब का बच्चा........ भाग जा यहां से, तेरी बक़ाया तनख़्वाह का एक पैसा भी नहीं दिया जाएगा........ अब में और कुछ नहीं सुनना चाहता.... ”

क़ासिम को अफ़सोस न हुआ बल्कि उसे ख़ुशी महसूस हुई कि चलो काम से कुछ देर के लिए छुट्टी मिल गई। घर से निकल वो अपनी ज़ख़्मी उंगली से बेपर्वा सीधा चौपाटी पहुंचा और वहां साहिल के पास एक बंच पर लेट गया और ख़ूब सोया।

चंद दिनों के बाद उस की उंगली का ज़ख़्म बद एहतियाती के बाइस सेप़्टिक होगया। सारा हाथ सूज गया। जिस दोस्त के पास वो ठहरा था उस ने अपनी दानिस्त के मुताबिक़ इस का बेहतर ईलाज किया मगर तकलीफ़ बढ़ती गई। आख़िर क़ासिम ख़ैराती हस्पताल में दाख़िल होगया। जहां उस का हाथ काट दिया गया।

अब जब कभी क़ासिम अपना कटा हुआ टिंड मुंड हाथ बढ़ा कर फ्लोरा फ़ाओनटीन के पास लोगों से भीक मांगता है तो उसे वो ब्लेड याद आजाता है जिस ने उसे बहुत बड़ी मुसीबत से नजात दिलाई। अब वो जिस वक़्त चाहे सर के नीचे अपनी गुदड़ी रख कर फुटपाथ पर सो सकता है। उस के पास टीन का एक छोटा सा भभका है जिस को कभी नहीं मांझता, इस लिए कि उसे इन्सपैक्टर साहब के घर के वो बर्तन याद आजाते हैं जो कभी ख़त्म होने में नहीं आते थे 

काली शलवार सआदत हसन मन्टो saadat hasan manto

दिल्ली आने से पहले वो अंबाला छावनी में थी जहां कई गोरे इस के गाहक थे। इन गोरों से मिलने-जुलने के बाइस वो अंग्रेज़ी के दस पंद्रह जुमले सीख गई थी, उन को वो आम गुफ़्तगु में इस्तिमाल नहीं करती थी लेकिन जब वो दिल्ली में आई और उस का कारोबार न चला तो एक रोज़ उस ने अपनी पड़ोसन तमंचा जान से कहा। “दिस लीफ़...... वेरी बैड।” यानी ये ज़िंदगी बहुत बुरी है जबकि खाने ही को नहीं मिलता।

अबनाला छावनी में उस का धंदा बहुत अच्छी तरह चलता था। छावनी के गोरे शराब पी कर उस के पास आजाते थे और वो तीन चार घंटों ही में आठ दस गोरों को निमटा कर बीस तीस रुपय पैदा कर लिया करती थी। ये गोरे, उस के हम वतनों के मुक़ाबले में बहुत अच्छे थे। इस में कोई शक नहीं कि वो ऐसी ज़बान बोलते थे जिस का मतलब सुलताना की समझ में नहीं आता था मगर उन की ज़बान से ये ला-इल्मी उस के हक़ में बहुत अच्छी साबित होती थी। अगर वो उस से कुछ रियायत चाहते तो वो सर हिला कर कह दिया करती थी। “साहिब, हमारी समझ में तुम्हारी बात नहीं आता।” और अगर वो उस से ज़रूरत से ज़्यादा छेड़छाड़ करते तो वो उन को अपनी ज़बान में गालियां देना शुरू करदेती थी। वो हैरत में उस के मुँह की तरफ़ देखते तो वो उन से कहती “साहिब, तुम एक दम उल्लु का पट्ठा है। हराम-ज़ादा है... समझा।” ये कहते वक़्त वो अपने लहजा में सख़्ती पैदा न करती बल्कि बड़े प्यार के साथ उन से बातें करती। ये गोरे हंस देते और हंसते वक़्त वो सुलताना को बिलकुल उल्लू के पट्ठे दिखाई देते।

मगर यहां दिल्ली में वो जब से आई थी एक गोरा भी उस के यहां नहीं आया था। तीन महीने उस को हिंदूस्तान के इस शहर में रहते होगए थे जहां उस ने सुना था कि बड़े लॉट साहब रहते हैं, जो गरमीयों में शिमले चले जाते हैं, मगर सिर्फ़ छः आदमी उस के पास आए थे। सिर्फ़ छः, यानी महीने में दो और इन छः ग्राहकों से उस ने ख़ुदा झूट न बुलवाए तो साढ़े अठारह रुपय वसूल किए थे। तीन रुपय से ज़्यादा पर कोई मानता ही नहीं था। सुलताना ने इन में से पाँच आदमीयों को अपना रेट दस रुपय बताया था मगर तअज्जुब की बात है कि इन में से हर एक ने यही कहा। “भई हम तीन रुपय से एक कोड़ी ज़्यादा न देंगे।” न जाने क्या बात थी कि इन में से हर एक ने उसे सिर्फ़ तीन रुपय के काबिल समझा। चुनांचे जब छटा आया तो उस ने ख़ुद इस से कहा। “देखो, मैं तीन रुपय एक टीम के लूंगी। इस से एक धेला तुम कम कहो तो मैं न लूंगी। अब तुम्हारी मर्ज़ी हो तो रहो वर्ना जाओ।” छट्ठे आदमी ने ये बात सुन कर तकरार न की और इस के हाँ ठहर गया। जब दूसरे कमरे में दरवाज़े वरवाज़े बंद करके वो अपना कोट उतारने लगा तो सुलताना ने कहा। “लाईए एक रुपया दूध का।” उस ने एक रुपया तो ना दिया लेकिन नए बादशाह की चमकती हुई अठन्नी जेब में से निकाल कर उस को दे दी और सुलताना ने भी चुपके से ले ली कि चलो जो आया है ग़नीमत है।

साढ़े अठारह रुपय तीन महीनों में...... बीस रुपय माहवार तो इस कोठे का किराया था जिस को मालिक मकान अंग्रेज़ी ज़बान में फ़्लैट कहता था।

इस फ़्लैट में ऐसा पाख़ाना था जिस में ज़ंजीर खींचने से सारी गंदगी पानी के ज़ोर से एक दम नीचे नल में ग़ायब हो जाती थी और बड़ा शोर होता था। शुरू शुरू में तो इस शोर ने उसे बहुत डराया था। पहले दिन जब वो रफ़ा-ए-हाजत के लिए इस पाख़ाना में गई तो उस के कमर में शिद्दत का दर्द होरहा था। फ़ारिग़ हो कर जब उठने लगी तो उस ने लटकी हुई ज़ंजीर का सहारा ले लिया। इस ज़ंजीर को देख कर उस ने ख़याल किया चूँकि ये मकान ख़ास हम लोगों की रिहायश के लिए तैय्यार किए गए हैं ये ज़ंजीर इस लिए लगाई गई है कि उठते वक़्त तकलीफ़ न हो और सहारा मिल जाया करे मगर जूंही उस ने ज़ंजीर पकड़ कर उठना चाहा, ऊपर खट खट सी हूई और फिर एक दम पानी इस शोर के साथ बाहर निकला कि डर के मारे इस के मुँह से चीख़ निकल गई।

ख़ुदाबख़्श दूसरे कमरे में अपना फोटोग्राफी का सामान दरुस्त कररहा था और एक साफ़ बोतल में हाई डरो कौनैन डाल रहा था कि उस ने सुलताना की चीख़ सुनी। दौड़ कर वह बाहर निकला और सुलताना से पूछा। “किया हुआ?...... ये चीख़ तुम्हारी थी?”

सुलताना का दिल धड़क रहा था। उस ने कहा। “ये मोह पाख़ाना है या क्या है। बीच में ये रेल गाड़ीयों की तरह ज़ंजीर किया लटका रखी है। मेरी कमर में दर्द था। मैंने कहा चलो इस का सहारा ले लूंगी, पर इस मोय ज़ंजीर को छेड़ना था कि वो धमाका हुआ कि मैं तुम से क्या कहूं।”

इस पर ख़ुदाबख़्श बहुत हंसा था और उस ने सुलताना को इस पैख़ाने की बाबत सब कुछ बता दिया था कि ये नए फैश का है जिस में ज़ंजीर हिलाने से सब गंदगी नीचे ज़मीन में धँस जाती है।

ख़ुदाबख़्श और सुलताना का आपस में कैसे संबंध हुआ ये एक लंबी कहानी है। ख़ुदाबख़्श रावलपिंडी का था। इनटर नट्स पास करने के बाद उस ने लारी चलाना सीखा, चुनांचे चार बरस तक वो रावलपिंडी और कश्मीर के दरमयान लारी चलाने का काम करता रहा। इस के बाद कश्मीर में उस की दोस्ती एक औरत से होगई। उस को भगा कर वो लाहौर ले आया। लाहौर में चूँकि उस को कोई काम न मिला। इस लिए उस ने औरत को पेशे बिठा दिया। दो तीन बरस तक ये सिलसिला जारी रहा और वो औरत किसी और के साथ भाग गई। ख़ुदाबख़्श को मालूम हुआ कि वो अबनाला में है। वो उस की तलाश में अबनाला आया जहां उस को सुलताना मिल गई। सुलताना ने उस को पसंद किया, चुनांचे दोनों का संबंध होगया।

ख़ुदाबख़्श के आने से एक दम सुलताना का कारोबार चमक उठा। औरत चूँ कि ज़ईफ़-उल-एतिका़द थी। इस लिए उस ने समझा कि ख़ुदाबख़्श बड़ा भागवान है जिस के आने से इतनी तरक़्क़ी होगई, चुनांचे इस ख़ुश एतिक़ादी ने ख़ुदाबख़्श की वक़ात उस की नज़रों में और भी बढ़ा दी।

ख़ुदाबख़्श आदमी मेहनती था। सारा दिन हाथ पर हाथ धर कर बैठना पसंद नहीं करता था। चुनांचे उस ने एक फ़ोटो ग्राफ़र से दोस्ती पैदा की जो रेलवे स्टेशन के बाहर मिनट कैमरे से फ़ोटो खींचा करता था। इस लिए उस ने फ़ोटो खींचना सीख लिया। फिर सुलताना से साठ रुपय लेकर कैमरा भी ख़रीद लिया। आहिस्ता आहिस्ता एक पर्दा बनवाया, दो कुर्सियां खरीदीं और फ़ोटो धोने का सब सामान लेकर उस ने अलाहिदा अपना काम शुरू कर दिया।

काम चल निकला, चुनांचे उस ने थोड़ी ही देर के बाद अपना अड्डा अबनाले छावनी में क़ायम कर दिया। यहां वो गोरों के फ़ोटो खींचता रहता। एक महीने के अंदर अंदर उस की छावनी के मुतअद्दिद गोरों से वाक़फ़ियत होगई, चुनांचे वो सुलताना को वहीं ले गया। यहां छावनी में ख़ुदाबख़्श के ज़रिया से कई गोरे सुलताना के मुस्तक़िल गाहक बन गए और उस की आमदनी पहले से दोगुनी होगई।

सुलताना ने कानों के लिए बुनदे ख़रीदे। साढ़े पाँच तोले की आठ कन्गनीयाँ भी बनवा लीं। दस पंद्रह अच्छी अच्छी साड़ियां भी जमा करलीं, घर में फ़र्नीचर वग़ैरा भी आगया। क़िस्सा मुख़्तसर ये कि अबनाला छावनी में वो बड़ी ख़ुशहाल थी मगर इका इकी न जाने ख़ुदाबख़्श के दिल में क्या समाई कि उस ने दिल्ली जाने की ठान ली। सुलताना इनकार कैसे करती जबकि ख़ुदाबख़्श को अपने लिए बहुत मुबारक ख़याल करती थी। उस ने ख़ुशी ख़ुशी दिल्ली जाना क़बूल करलिया। बल्कि उस ने ये भी सोचा कि इतने बड़े शहर में जहां लॉट साहब रहते हैं उस का धंदा और भी अच्छा चलेगा। अपनी सहेलियों से वो दिल्ली की तारीफ़ सुन चुकी थी। फिर वहां हज़रत निज़ाम उद्दीन औलिया की ख़ानक़ाह थी। जिस से इसे बेहद अक़ीदत थी, चुनांचे जल्दी जल्दी घर का भारी सामान बेच बाच कर वो ख़ुदाबख़्श के साथ दिल्ली आगई। यहां पहुंच कर ख़ुदाबख़्श ने बीस रुपय माहवार पर एक छोटा सा फ़्लैट ले लिया जिस में वो दोनों रहने लगे।

एक ही क़िस्म के नए मकानों की लंबी सी क़तार सड़क के साथ साथ चली गई थी। म्यूनसिंपल कमेटी ने शहर का ये हिस्सा ख़ास कसबियों के लिए मुक़र्रर कर दिया था ताकि वो शहर में जगह जगह अपने अड्डे न बनाएं। नीचे दुकानें थीं और ऊपर दोमंज़िला रिहायशी फ़्लैट। चूँकि सब इमारतें एक ही डिज़ाइन की थीं इस लिए शुरू शुरू में सुलताना को अपना फ़्लैट तलाश करने में बहुत दिक्कत महसूस हुई थी पर जब नीचे लांड्री वाले ने अपना बोर्ड घर की पेशानी पर लगा दिया तो उस को एक पक्की निशानी मिल गई। यहां मैले कपड़ों की धुलाई की जाती है। ये बोर्ड पढ़ते ही वो अपना फ़्लैट तलाश कर लिया करती थी। इसी तरह उस ने और बहुत सी निशानीयां क़ायम करली थीं, मसलन बड़े बड़े हुरूफ़ में जहां कोयलों की दूकान लिखा था वहां उस की सहेली हीरा बाई रहती थी जो कभी कभी रेडीयो घर में गाने जाया करती थी। जहां शरिफा के खाने का आला इंतिज़ाम है। लिखा था वहां उस की दूसरी सहेली मुख़तार रहती थी। निवाड़ के कारख़ाना के ऊपर अनवरी रहती थी जो उसी कारख़ाना के सेठ के पास मुलाज़िम थी। चूँकि सेठ साहब को रात के वक़्त अपने कारख़ाना की देख भाल करना होती थी इस लिए वो अनवरी के पास ही रहते थे।

दूकान खोलते ही गाहक थोड़े ही आते हैं। चुनांचे जब एक महीने तक सुलताना बेकार रही तो उस ने यही सोच कर अपने दिल को तसल्ली दी, पर जब दो महीने गुज़र गए और कोई आदमी उस के कोठे पर न आया तो उसे बहुत तशवीश हुई। उस ने ख़ुदाबख़्श से कहा। “क्या बात है ख़ुदाबख़्श, दो महीने आज पूरे होगए हैं हमें यहां आए हुए, किसी ने इधर का रुख़ भी नहीं किया...... मानती हूँ आजकल बाज़ार बहुत मंदा है, पर इतना मंदा भी तो नहीं कि महीने भर में कोई शक्ल देखने ही में न आए।” ख़ुदाबख़्श को भी ये बात बहुत अर्सा से खटक रही थी मगर वो ख़ामोश था, पर जब सुलताना ने ख़ुद बात छेड़ी तो उस ने कहा। “मैं कई दिनों से इस की बाबत सोच रहा हूँ। एक बात समझ में आती है, वो ये कि जंग की वजह से लोग बाग दूसरे धुंदों में पड़ कर इधर का रस्ता भूल गए हैं...... या फिर ये हो सकता है कि... ” वो इस के आगे कुछ कहने ही वाला था कि सीढ़ीयों पर किसी के चढ़ने की आवाज़ आई। ख़ुदाबख़्श और सुलताना दोनों इस आवाज़ की तरफ़ मुतवज्जा हुए। थोड़ी देर के बाद दस्तक हुई। ख़ुदाबख़्श ने लपक कर दरवाज़ा खोला। एक आदमी अंदर दाख़िल हुआ। ये पहला गाहक था जिस से तीन रुपय में सौदा तय हुआ। इस के बाद पाँच और आए यानी तीन महीने में छः, जिन से सुलताना ने सिर्फ़ साढ़े अठारह रुपय वसूल किए।

बीस रुपय माहवार तो फ़्लैट के किराया में चले जाते थे, पानी का टैक्स और बिजली का बिल जुदा था। इस के इलावा घर के दूसरे ख़र्च थे। खाना पीना, कपड़े लत्ते, दवा दारू और आमदन कुछ भी नहीं थी। साढ़े अठारह रुपय तीन महीने में आए तो उसे आमदन तो नहीं कह सकते। सुलताना परेशान होगई। साढ़े पाँच तोले की आठ कन्गनीयाँ जो उस ने अंबाले में बनवाई थीं आहिस्ता आहिस्ता बक गईं। आख़िरी कन्गनी की जब बारी आई तो उस ने ख़ुदाबख़्श से कहा। “तुम मेरी सुनो और चलो वापस अंबाले में यहां क्या धरा है?... भई होगा, पर हमें तो ये शहर रास नहीं आया। तुम्हारा काम भी वहां ख़ूब चलता था, चलो, वहीं चलते हैं। जो नुक़्सान हुआ है उस को अपना सर सदक़ा समझो। इस कन्गनी को बीच कर आओ, मैं अस्बाब वग़ैरा बांध कर तैय्यार रखती हूँ। आज रात की गाड़ी से यहां से चल देंगे।”

ख़ुदाबख़्श ने कन्गनी सुलताना के हाथ से ले ली और कहा। “नहीं जान-ए-मन, अंबाला अब नहीं जाऐंगे, यहीं दिल्ली में रह कर कमाएं गे। ये तुम्हारी चूड़ियां सब की सब यहीं वापस आयेंगी । अल्लाह पर भरोसा रखो। वो बड़ा कारसाज़ है। यहां भी वो कोई न कोई अस्बाब बना ही देगा।”

सुलताना चुप होरही, चुनांचे आख़िरी कन्गनी हाथ से उतर गई। बचे हाथ देख कर उस को बहुत दुख होता था, पर क्या करती, पेट भी तो आख़िर किसी हीले से भरना था।

जब पाँच महीने गुज़र गए और आमदन ख़र्च के मुक़ाबले में चौथाई से भी कुछ कम रही तो सुलताना की परेशानी और ज़्यादा बढ़ गई। ख़ुदाबख़्श भी सारा दिन अब घर से ग़ायब रहने लगा था। सुलताना को इस का भी दुख था। इस में कोई शक नहीं कि पड़ोस में उस की दो तीन मिलने वालियां मौजूद थीं जिन के साथ वो अपना वक़्त काट सकती थी पर हर रोज़ उन के यहां जाना और घंटों बैठे रहना उस को बहुत बुरा लगता था। चुनांचे आहिस्ता आहिस्ता उस ने इन सहेलीयों से मिलना-जुलना बिलकुल तर्क कर दिया। सारा दिन वो अपने सुनसान मकान में बैठी रहती। कभी छालीया काटती रहती, कभी अपने पुराने और फटे हुए कपड़ों को सीती रहती और कभी बाहर बालकोनी में आकर जंगले के साथ खड़ी हो जाती और सामने रेलवे शैड में साकित और मुतहर्रिक इंजनों की तरफ़ घंटों बेमतलब देखती रहती।

सड़क की दूसरी तरफ़ माल गोदाम था जो उस कोने से इस कोने तक फैला हुआ था। दाहिने हाथ को लोहे की छत के नीचे बड़ी बड़ी गांठें पड़ी रहती थीं और हर क़िस्म के माल अस्बाब के ढेर से लगे रहते थे। बाएं हाथ को खुला मैदान था जिस में बेशुमार रेल की पटड़ीयाँ बिछी हूई थीं। धूप में लोहे की ये पटड़ियाँ चमकतीं तो सुलताना अपने हाथों की तरफ़ देखती जिन पर नीली नीली रगें बिलकुल इन पटड़ियों की तरह उभरी रहती थीं, इस लंबे और खुले मैदान में हरवक़त इंजन और गाड़ियां चलती रहती थीं। कभी इधर कभी उधर। इन इंजनों और गाड़ीयों की छक छक फ़क़ फ़क़ सदा गूंजती रहती थी। सुबह सवेरे जब वो उठ कर बालकोनी में आती तो एक अजीब समां नज़र आता। धुंदलके में इंजनों के मुँह से गाढ़ा गाढ़ा धुआँ निकलता था और गदले आसमान की जानिब मोटे और भारी आदमीयों की तरह उठता दिखाई देता था। भाप के बड़े बड़े बादल भी एक शोर के साथ पटड़ियों से उठते थे और आँख झपकने की देर में हवा के अंदर घुल मिल जाते थे। फिर कभी कभी जब वो गाड़ी के किसी डिब्बे को जिसे इंजन ने धक्का दे कर छोड़ दिया हो अकेले पटड़ियों पर चलता देखती तो उसे अपना ख़याल आता। वो सोचती कि उसे भी किसी ने ज़िंदगी की पटड़ी पर धक्का दे कर छोड़ दिया है और वो ख़ुदबख़ुद जा रही है। दूसरे लोग कांटे बदल रहे हैं और वो चली जा रही है...... न जाने कहाँ। फिर एक रोज़ ऐसा आएगा जब इस धक्के का ज़ोर आहिस्ता आहिस्ता ख़त्म हो जाएगा और वो कहीं रुक जाएगी। किसी ऐसे मुक़ाम पर जो उस का देखा भाला न होगा।

यूं तो वो बेमतलब घंटों रेल की इन टेढ़ी बांकी पटड़ियों और ठहरे और चलते हूए इंजनों की तरफ़ देखती रहती थी पर तरह तरह के ख़याल उस के दिमाग़ में आते रहते थे। अंबाला छावनी में जब वो रहती थी तो स्टेशन के पास ही उस का मकान था मगर वहां उस ने कभी इन चीज़ों को ऐसी नज़रों से नहीं देखा था। अब तो कभी कभी उस के दिमाग़ में ये भी ख़याल आता कि ये जो सामने रेल की पटड़ियों का जाल सा बिछा है और जगह जगह से भाप और धुआँ उठ रहा है एक बहुत बड़ा चकला है। बहुत सी गाड़ियां हैं जिन को चंद मोटे मोटे इंजन इधर उधर धकेलते रहते हैं। सुलताना को तो बाअज़ औक़ात ये इंजन सेठ मालूम होते हैं जो कभी कभी अंबाला में उस के हाँ आया करते थे। फिर कभी कभी जब वो किसी इंजन को आहिस्ता आहिस्ता गाड़ीयों की क़तार के पास से गुज़रता देखती तो उसे ऐसा महसूस होता कि कोई आदमी चकले के किसी बाज़ार में से ऊपर कोठों की तरफ़ देखता जा रहा है।

सुलताना समझती थी कि ऐसी बातें सोचना दिमाग़ की ख़राबी का बाइस है, चुनांचे जब इस क़िस्म के ख़याल उस को आने लगे तो उस ने बालकोनी में जाना छोड़ दिया। ख़ुदाबख़्श से उस ने बारहा कहा। “देखो, मेरे हाल पर रहम करो। यहां घर में रहा करो। मेंw सारा दिन यहां बीमारों की तरह पड़ी रहती हूँ। मगर उस ने हर बार सुलताना से ये कह कर उस की तश्फ़ी करदी। जान-ए-मन... मैं बाहर कुछ कमाने की फ़िक्र कर रहा हूँ। अल्लाह ने चाहा तो चंद दिनों ही में बेड़ा पार हो जाएगा।”

पूरे पाँच महीने होगए थे मगर अभी तक न सुलताना का बेड़ा पार हुआ था न ख़ुदाबख़्श का।

मुहर्रम का महीना सर पर आरहा था मगर सुलताना के पास काले कपड़े बनवाने के लिए कुछ भी न था। मुख़तार ने लेडी हैमिल्टन की एक नई वज़ा की क़मीज़ बनवाई थी जिस की आसतीनें काली जॉर्जजट की थीं। इस के साथ मैच करने के लिए उस के पास काली साटन की शलवार थी जो काजल की तरह चमकती थी। अनवरी ने रेशमी जॉर्जजट की एक बड़ी नफ़ीस साड़ी ख़रीदी थी। उस ने सुलताना से कहा था कि वो इस साड़ी के नीचे सफ़ैद बोसकी का पेटीकोट पहनेगी क्योंकि ये नया फ़ैशन है। इस साड़ी के साथ पहनने को अनवरी काली मख़मल का एक जूता लाई थी जो बड़ा नाज़ुक था। सुलताना ने जब ये तमाम चीज़ें देखीं तो उस को इस एहसास ने बहुत दुख दिया कि वो मुहर्रम मनाने के लिए ऐसा लिबास ख़रीदने की इस्तिताअत नहीं रखती।

अनवरी और मुख़तार के पास ये लिबास देख कर जब वो घर आई तो उस का दिल बहुत मग़्मूम था। उसे ऐसा मालूम होता था कि फोड़ा सा उस के अंदर पैदा होगया है। घर बिलकुल ख़ाली था। ख़ुदाबख़्श हस्ब-ए-मामूल बाहर था। देर तक वो दरी पर गाव तकिया सर के नीचे रख कर लेटी रही, पर जब उस की गर्दन ऊंचाई के बाइस अकड़ सी गई तो उठ कर बाहर बालकोनी में चली गई ताकि ग़म अफ़्ज़ा ख़यालात को अपने दिमाग़ में से निकाल दे।

सामने पटड़ियों पर गाड़ीयों के डिब्बे खड़े थे पर इंजन कोई भी न था। शाम का वक़्त था। छिड़काओ हो चुका था इस लिए गर्द-ओ-गुबार दब गया था। बाज़ार में ऐसे आदमी चलने शुरू होगए थे जो ताक झांक करने के बाद चुपचाप घरों का रुख़ करते हैं। ऐसे ही एक आदमी ने गर्दन ऊंची करके सुलताना की तरफ़ देखा। सुलताना मुस्कुरा दी और उस को भूल गई क्योंकि अब सामने पटड़ियों पर एक इंजन नुमूदार होगया था। सुलताना ने गौरसे उस की तरफ़ देखना शुरू किया और आहिस्ता आहिस्ता ये ख़याल इस के दिमाग़ में आया कि इंजन ने भी काला लिबास पहन रखा है। ये अजीब-ओ-ग़रीब ख़याल दिमाग़ से निकालने की ख़ातिर जब उस ने सड़क की जानिब देखा तो उसे वही आदमी बैलगाड़ी के पास खड़ा नज़र आया जिस ने उस की तरफ़ ललचाई नज़रों से देखा था। सुलताना ने हाथ से उसे इशारा किया। उस आदमी ने इधर उधर देख कर एक लतीफ़ इशारे से पूछा, किधर से आऊं, सुलताना ने उसे रास्ता बता दिया। वो आदमी थोड़ी देर खड़ा रहा मगर फिर बड़ी फुरती से ऊपर चला आया।

सुलताना ने उसे दरी पर बिठाया। जब वो बैठ गया तो उस ने सिलसिल-ए-गुफ़्तुगू शुरू करने के लिए कहा। “आप ऊपर आते डर रहे थे।” वो आदमी ये सुन कर मुस्कुराया। “तुम्हें कैसे मालूम हुआ...... डरने की बात ही क्या थी?” इस पर सुलताना ने कहा। “ये मैंने इस लिए कहा कि आप देर तक वहीं खड़े रहे और फिर कुछ सोच कर इधर आए।” वो ये सुन कर फिर मुस्कुराया। “तुम्हें ग़लतफ़हमी हूई। में तुम्हारे ऊपर वाले फ़्लैट की तरफ़ देख रहा था। वहां कोई औरत खड़ी एक मर्द को ठेंगा दिखा रही थी। मुझे ये मंज़र पसंद आया। फिर बालकोनी में सबज़ बल्ब रोशन हुआ तो मैं कुछ देर के लिए ठहर गया। सबज़ रोशनी मुझे पसंद है। आँखों को बहुत अच्छी लगती है।” ये कह उस ने कमरे का जायज़ा लेना शुरू कर दिया। फिर वो उठ खड़ा हुआ। सुलताना ने पूछा। “आप जा रहे हैं?” उस आदमी ने जवाब दिया। “नहीं, मैं तुम्हारे इस मकान को देखना चाहता हूँ...... चलो मुझे तमाम कमरे दिखाओ।”

सुलताना ने उस को तीनों कमरे एक एक करके दिखा दिए। उस आदमी ने बिलकुल ख़ामोशी से इन कमरों का मुआइना किया। जब वो दोनों फिर उसी कमरे में आगए जहां पहले बैठे तो उस आदमी ने कहा। “मेरा नाम शंकर है।”

सुलताना ने पहली बार ग़ौर से शंकर की तरफ़ देखा। वो मुतवस्सित क़द का मामूली शक्ल-ओ-सूरत का आदमी था मगर उस की आँखें ग़ैरमामूली तौर पर साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ थीं। कभी कभी इन में एक अजीब क़िस्म की चमक भी पैदा होती थी। गठीला और कसरती बदन था। कनपटियों पर उस के बाल सफ़ैद होरहे थे। ख़ाकसतरी रंग की गर्म पतलून पहने था। सफ़ैद क़मीज़ थी जिस का कालर गर्दन पर से ऊपर को उठा हुआ था।

शंकर कुछ इस तरह दरी पर बैठा था कि मालूम होता था शंकर के बजाय सुलताना गाहक है। इस एहसास ने सुलताना को क़दरे परेशान कर दिया। चुनांचे उस ने शंकर से कहा। “फ़रमाईए...... ”

शंकर बैठा था, ये सुन कर लेट गया। “मैं क्या फ़र्माऊँ, कुछ तुम ही फ़रमाओ। बुलाया तुम्हें ने है मुझे।” जब सुलताना कुछ ना बोली तो वो उठ बैठा। “मैं समझा, लो अब मुझ से सुनो, जो कुछ तुम ने समझा, ग़लत है, मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो कुछ देकर जाते हैं। डाक्टरों की तरह मेरी भी फ़ीस है। मुझे जब बुलाया जाये तो फ़ीस देना ही पड़ती है।”

सुलताना ये सुन कर चकरा गई मगर इस के बावजूद उसे बेइख़्तयार हंसी आगई।

“आप काम क्या करते हैं?”

शंकर ने जवाब दिया। “यही जो तुम लोग करते हो।”

“क्या?”

“तुम क्या करती हो?”

“मैं... मैं... मैं कुछ भी नहीं करती।”

“मैं भी कुछ नहीं करता।”

“सुलताना ने भुन्ना कर कहा। “ये तो कोई बात न हुई...... आप कुछ न कुछ तो ज़रूर करते होंगे।”

शंकर ने बड़े इत्मिनान से जवाब दिया। “तुम भी कुछ न कुछ ज़रूर करती होगी।”

“झक मारती हूँ।”

“मैं भी झक मारता हूँ।”

“तो आओ दोनों झक मारें।”

“मैं हाज़िर हूँ मगर झक मारने के लिए दाम में कभी नहीं दिया करता।”

“होश की दवा करो...... ये लंगर ख़ाना नहीं।”

“और मैं भी वालंटियर नहीं हूँ।”

सुलताना यहां रुक गई। उस ने पूछा। “ये वालंटियर कौन होते हैं।”

शंकर ने जवाब दिया। “उल्लु के पट्ठे।”

“मैं भी उल्लू की पट्ठी नहीं।”

“मगर वो आदमी ख़ुदाबख़्श जो तुम्हारे साथ रहता है ज़रूर उल्लु का पट्ठा है।”

“क्यों?”

“इस लिए कि वो कई दिनों से एक ऐसे ख़ुदा रसीदा फ़क़ीर के पास अपनी क़िस्मत खुलवाने की ख़ातिर जा रहा है जिस की अपनी क़िस्मत ज़ंग लगे ताले की तरह बंद है।”

ये कह कर शंकर हंसा।

इस पर सुलताना ने कहा। “तुम हिंदू हो, इसी लिए हमारे इन बुज़ुर्गों का मज़ाक़ उड़ाते हो।”

शंकर मुस्कुराया। “ऐसी जगहों पर हिंदू मुस्लिम सवाल पैदा नहीं हुआ करते। पण्डित मोलवी और मिस्टर जिनाह अगर यहां आएं तो वो भी शरीफ़ आदमी बन जाएं।”

“जाने तुम क्या ऊटपटांग बातें करते हो...... बोलो रहोगे?”

“उसी शर्त पर जो पहले बता चुका हूँ।”

सुलताना उठ खड़ी हूई। “तो जाओ रस्ता पकड़ो।”

शंकर आराम से उठा। पतलून की जेबों में उस ने अपने दोनों हाथ ठूंसे और जाते हुए कहा। “मैं कभी कभी इस बाज़ार से गुज़रा करता हूँ। जब भी तुम्हें मेरी ज़रूरत हो बुला लेना...... मैं बहुत काम का आदमी हूँ।”

शंकर चला गया और सुलताना काले लिबास को भूल कर देर तक उस के मुतअल्लिक़ सोचती रही। उस आदमी की बातों ने उस के दुख को बहुत हल्का कर दिया था। अगर वो अंबाले में आया होता जहां कि वो ख़ुशहाल थी तो उस ने किसी और ही रंग में उस आदमी को देखा होता और बहुत मुम्किन है कि उसे धक्के देकर बाहर निकाल दिया होता मगर यहां चूँकि वो बहुत उदास रहती थी,इस लिए शंकर की बातें उसे पसंद आईं।

शाम को जब ख़ुदाबख़्श आया तो सुलताना ने उस से पूछा। “तुम आज सारा दिन किधर ग़ायब रहे हो?”

ख़ुदाबख़्श थक कर चूर चूर होरहा था, “कहने लगा। पुराने क़िला के पास से आरहा हूँ। वहां एक बुज़ुर्ग कुछ दिनों से ठहरे हूए हैं, उन्ही के पास हर रोज़ जाता हूँ कि हमारे दिन फिर जाएं... ”

“कुछ उन्हों ने तुम से कहा?”

“नहीं, अभी वो मेहरबान नहीं हूए... पर सुलताना, मैं जो उन की ख़िदमत कर रहा हूँ वो अकारत कभी नहीं जाएगी। अल्लाह का फ़ज़्ल शामिल-ए-हाल रहा तो ज़रूर वारे न्यारे हो जाऐंगे।”

सुलताना के दिमाग़ में मुहर्रम मनाने का ख़याल समाया हुआ था, ख़ुदाबख़्श से रूनी आवाज़ में कहने लगी। “सारा सारा दिन बाहर ग़ायब रहते हो... मैं यहां पिंजरे में क़ैद रहती हूँ, न कहीं जा सकती हूँ न आसकती हूँ। मुहर्रम सर पर आगया है, कुछ तुम ने इसकी भी फ़िक्र की कि मुझे काले कपड़े चाहिऐं, घर में फूटी कोड़ी तक नहीं। कन्गनीयाँ थीं सौ वो एक एक करके बिक गईं, अब तुम ही बताओ क्या होगा?... यूं फ़क़ीरों के पीछे कब तक मारे मारे फिरा करोगे। मुझे तो ऐसा दिखाई देता है कि यहां दिल्ली में ख़ुदा ने भी हम से मुँह मोड़ लिया है। मेरी सुनो तो अपना काम शुरू कर दो। कुछ तो सहारा हो ही जाएगा।”

ख़ुदाबख़्श दरी पर लेट गया और कहने लगा। “पर ये काम शुरू करने के लिए भी तो थोड़ा बहुत सरमाया चाहिए...... ख़ुदा के लिए अब ऐसी दुख भरी बातें न करो। मुझ से अब बर्दाश्त नहीं हो सकतीं। मैंने सचमुच अंबाला छोड़ने में सख़्त ग़लती की, पर जो करता है अल्लाह ही करता है और हमारी बेहतरी ही के लिए करता है, क्या पता है कि कुछ देर और तकलीफें बर्दाश्त करने के बाद हम...... ”

सुलताना ने बात काट कर कहा। “तुम ख़ुदा के लिए कुछ करो। चोरी करो या डाका मॉरो पर मुझे एक शलवार का कपड़ा ज़रूर लादू। मेरे पास सफ़ैद बोसकी की क़मीज़ पड़ी है, उस को में काला रंगवा लूंगी। सफ़ैद नेनों का एक नया दुपट्टा भी मेरे पास मौजूद है, वही जो तुम ने मुझे दीवाली पर ला कर दिया था, ये भी क़ीज़ के साथ ही काला रंगवा लिया जाएगा। एक सिर्फ़ शलवार की कसर है, सो वह तुम किसी न किसी तरह पैदा करदो...... देखो तुम्हें मेरी जान की क़सम किसी न किसी तरह ज़रूर लादो...... मेरी भित्ति खाओ अगर न लाओ।”

ख़ुदाबख़्श उठ बैठा। “अब तुम ख़्वाह-मख़्वाह ज़ोर दिए चली जा रही हो...... मैं कहाँ से लाऊँगा...... अफ़ीम खाने के लिए तो मेरे पास पैसा नहीं।”

“कुछ भी करो मगर मुझे साढ़े चार गज़ काली साटन लादो।”

“दुआ करो कि आज रात ही अल्लाह दो तीन आदमी भेज दे।”

“लेकिन तुम कुछ नहीं करोगे...... तुम अगर चाहो तो ज़रूर इतने पैसे पैदा कर सकते हो। जंग से पहले ये साटन बारह चौदह आना गज़ मिल जाती थी, अब सवा रुपय गज़ के हिसाब से मिलती है। साढ़े चार गज़ों पर कितने रुपय ख़र्च हो जाऐंगे?”

“अब तुम कहती हो तो मैं कोई हीला करूंगा।” ये कह कर ख़ुदाबख़्श उठा। “लो अब इन बातों को भूल जाओ, मैं होटल से खाना ले आऊं।”

होटल से खाना आया दोनों ने मिल कर ज़हर मार किया और सौ गए। सुबह हुई। ख़ुदाबख़्श पुराने क़िले वाले फ़क़ीर के पास चला गया और सुलताना अकेली रह गई। कुछ देर लेटी रही, कुछ देर सोई रही। इधर उधर कमरों में टहलती रही, दोपहर का खाना खाने के बाद उस ने अपना सफ़ैद नेनों का दुपट्टा और सफ़ैद बोसकी की क़मीज़ निकाली और नीचे लांड्री वाले को रंगने के लिए दे आई। कपड़े धोने के इलावा वहां रंगने का काम भी होता था। ये काम करने के बाद उस ने वापिस आकर फिल्मों की किताबें पढ़ीं जिन में उस की देखी हुई फिल्मों की कहानी और गीत छपे हूए थे। ये किताबें पढ़ते पढ़ते वो सौ गई, जब उठी तो चार बज चुके थे क्योंकि धूप आंगन में से मोरी के पास पहुंच चुकी थी। नहा धो कर फ़ारिग़ हूई तो गर्म चादर ओढ़ कर बालकोनी में आ खड़ी हूई। क़रीबन एक घंटा सुलताना बालकोनी में खड़ी रही। अब शाम होगई थी। बत्तियां रोशन होरही थीं। नीचे सड़क में रौनक के आसार नज़र आने लगे। सर्दी में थोड़ी सी शिद्दत होगई थी मगर सुलताना को ये नागवार मालूम न हूई। वो सड़क पर आते जाते टांगों और मोटरों की तरफ़ एक अर्सा से देख रही थी। दफ़अतन उसे शंकर नज़र आया। मकान के नीचे पहुंच कर उस ने गर्दन ऊंची की और सुलताना की तरफ़ देख कर मुस्कुरा दिया। सुलताना ने ग़ैर इरादी तौर पर हाथ का इशारा किया और उसे ऊपर बुला लिया।

जब शंकर ऊपर आगया तो सुलताना बहुत परेशान हूई कि इस से क्या कहे। दरअसल उस ने ऐसे ही बिला सोचे समझे उसे इशारा कर दिया था। शंकर बेहद मुतमइन था जैसे उसका अपना घर है, चुनांचे बड़ी बेतकल्लुफ़ी से पहले रोज़ की तरह वो गाव तकिया सर के नीचे रख कर लेट गया। जब सुलताना ने देर तक उस से कोई बात न की तो उस से कहा। “तुम मुझे सौ दफ़ा बुला सकती हो और सौ दफ़ा ही कह सकती हो कि चले जाओ...... मैं ऐसी बातों पर कभी नाराज़ नहीं हुआ करता।”

सुलताना शश-ओ-पंज में गिरफ़्तार होगई, कहने लगी। “नहीं बैठो, तुम्हें जाने को कौन कहता है।”

शंकर इस पर मुस्कुरा दिया। “तो मेरी शर्तें तुम्हें मंज़ूर हैं।”

“कैसी शर्तें?” सुलताना ने हंस कर कहा। “क्या निकाह कर रहे हो मुझ से?”

“निकाह और शादी कैसी?...... न तुम उम्र भर में किसी से निकाह करोगी ना मैं। ये रस्में हम लोगों के लिए नहीं...... छोड़ो इन फुज़ूलीयात को। कोई काम की बात करो।”

“बोलो क्या बात करूं?”

“तुम औरत हो...... कोई ऐसी बात शुरू करो जिस से दो घड़ी दिल बेहल जाये। इस दुनिया में सिर्फ़ दोकानदारी ही दोकानदारी नहीं, और कुछ भी है।”

सुलताना ज़हनी तौर पर अब शंकर को क़बूल कर चुकी थी। कहने लगी। “साफ़ साफ़ कहो, तुम मुझ से क्या चाहते हो।”

“जो दूसरे चाहते हैं।” शंकर उठ कर बैठ गया।

“तुम में और दूसरों में फिर फ़र्क़ ही क्या रहा।”

“तुम में और मुझ में कोई फ़र्क़ नहीं। उन में और मुझ में ज़मीन-ओ-आसमान का फ़र्क़ है। ऐसी बहुत सी बातें होती हैं जो पूछना नहीं चाहिऐं ख़ुद समझना चाहिऐं।”

सुलताना ने थोड़ी देर तक शंकर की इस बात को समझने की कोशिश की फिर कहा। “मैं समझ गई हूँ।”

“तो कहो, क्या इरादा है।”

“तुम जीते, में हारी। पर मैं कहती हूँ, आज तक किसी ने ऐसी बात क़बूल न की होगी।”

“तुम ग़लत कहती हो...... इसी मुहल्ले में तुम्हें ऐसी सादा लौह औरतें भी मिल जाएंगी जो कभी यक़ीन नहीं करेंगी कि औरत ऐसी ज़िल्लत क़बूल कर सकती है जो तुम बग़ैर किसी एहसास के क़बूल करती रही हो। लेकिन उन के न यक़ीन करने के बावजूद तुम हज़ारों की तादाद में मौजूद हो...... तुम्हारा नाम सुलताना है न?”

“सुलताना ही है।”

शंकर उठ खड़ा हुआ और हँसने लगा। “मेरा नाम शंकर है...... ये नाम भी अजब ऊटपटांग होते हैं, चलो आओ अंदर चलें।”

शंकर और सुलताना दरी वाले कमरे में वापस आए तो दोनों हंस रहे थे, न जाने किस बात पर। जब शंकर जाने लगा तो सुलताना ने कहा। “शंकर मेरी एक बात मानोगे?”

शंकर ने जवाबन कहा। “पहले बात बताओ।”

सुलताना कुछ झेंप सी गई। “तुम कहोगे कि मैं दाम वसूल करना चाहती हूँ मगर।”

“कहो कहो... रुक क्यों गई हो।”

सुलताना ने जुर्रत से काम लेकर कहा। “बात ये है कि मुहर्रम आरहा है और मेरे पास इतने पैसे नहीं कि मैं काली शलवार बनवा सकूं...... यहां के सारे दुखड़े तो तुम मुझ से सुन ही चुके हो। क़मीज़ और दुपट्टा मेरे पास मौजूद था जो मैंने आज रंगवाने के लिए दे दिया है।”

शंकर ने ये सुन कर कहा। “तुम चाहती हो कि मैं तुम्हें कुछ रुपय दे दूं जो तुम ये काली शलवार बनवा सको।”

सुलताना ने फ़ौरन ही कहा। “नहीं, मेरा मतलब ये है कि अगर हो सके तो तुम मुझे एक काली शलवार बनवा दो।”

शंकर मुस्कुराया। “मेरी जेब में तो इत्तिफ़ाक़ ही से कभी कुछ होता है, बहरहाल में कोशिश करूंगा। मुहर्रम की पहली तारीख़ को तुम्हें ये शलवार मिल जाएगी। ले बस अब ख़ुश हो गईं।” सुलताना के बुन्दों की तरफ़ देख कर शंकर ने पूछा। “क्या ये बुनदे तुम मुझे दे सकती हो?”

सुलताना ने हंस कर कहा। “तुम इन्हें क्या करोगे। चांदी के मामूली बुन्दे हैं। ज़्यादा से ज़्यादा पाँच रुपय के होंगे।”

इस पर शंकर ने कहा। “मैंने तुम से बंदे मांगे हैं। उन की क़ीमत नहीं पूछी, बोलो, देती हो।”

“ले लो। ये कह कर सुलताना ने बुन्दे उतार कर शंकर को दे दिए। इस के बाद अफ़्सोस हुआ मगर शंकर जा चुका था।”

सुलताना को क़तअन यक़ीन नहीं था कि शंकर अपना वाअदा पूरा करेगा मगर आठ रोज़ के बाद मुहर्रम की पहली तारीख़ को सुबह नौ बजे दरवाज़े पर दस्तक हूई। सुलताना ने दरवाज़ा खोला तो शंकर खड़ा था। अख़बार में लिपटी हुई चीज़ इस ने सुलताना को दी और कहा। “साटन की काली शलवार है ...... देख लेना, शायद लंबी हो...... अब मैं चलता हूँ।”

शंकर शलवार दे कर चला गया और कोई बात उस ने सुलताना से न की। उस की पतलून में शिकनें पड़ी हुई थीं। बाल बिखरे हूए थे। ऐसा मालूम होता था कि अभी अभी सौ कर उठा है और सीधा इधर ही चला आया है।

सुलताना ने काग़ज़ खोला। साटन की काली शलवार थी ऐसी ही जैसी कि वो अनवरी के पास देख कर आई थी। सुलताना बहुत ख़ुश हूई। बुंदों और इस सौदे का जो अफ़्सोस उसे हुआ था इस शलवार ने और शंकर की वाअदा ईफ़ाई ने दूर कर दिया।

दोपहर को वो नीचे लांड्री वाले से अपनी रंगी हुई क़मीज़ और दुपट्टा लेकर आई। तीनों काले कपड़े उस ने जब पहन लिए तो दरवाज़े पर दस्तक हूई। सुलताना ने दरवाज़ा खोला तो अनवरी अंदर दाख़िल हुई। उस ने सुलताना के तीनों कपड़ों की तरफ़ देखा और कहा। “क़मीज़ और दुपट्टा तो रंगा हुआ मालूम होता है, पर ये शलवार नई है ...... कब बनवाई?”

सुलताना ने जवाब दिया। “आज ही दर्ज़ी लाया है।” ये कहते हुए उस की नज़रें अनवरी के कानों पर पड़ीं। “ये बुन्दे तुम ने कहाँ से लिए?”

अनवरी ने जवाब दिया। “आज ही मंगवाए हैं।”

इस के बाद दोनों को थोड़ी देर तक ख़ामोश रहना पड़ा। 

काली कली सआदत हसन मन्टो saadat hasan manto

जब उस ने अपने दुश्मन के सीने में अपना छुरा पैवस्त किया और ज़मीन पर ढेर होगया। उस के सीने के ज़ख़्म से सुर्ख़ सुर्ख़ लहू का चशमा फूटने लगा और थोड़ी ही देर में वहां लहू का छोटा सा हौज़ बन गया। क़ातिल पास खड़ा उस की तामीर देखता रहा था। जब लहू का आख़िरी क़तरा बाहर निकला तो लहू की हौज़ में मक़्तूल की लाश डूब गई और वो फिर से उड़ गया।

थोड़ी देर के बाद नन्हे नन्हे परिंदे उड़ते, चूं चूं करते हौज़ के पास आए तो उन की समझ में न आया कि उन का बाप ये लाल लाल पानी का ख़ूबसूरत हौज़ कैसे बन गया। नीचे तह में एक क़तरा ख़ून अपने लहू की आख़िरी बूँद जो उस ने चोरी चोरी अपने दल के खु़फ़िया गोशे में रख ली थी तड़पने लगी। उस का ये रक़्स ऐसा था जिस में ज़र्क़-बर्क़ पिशवाज़ों का कोई भड़कीला-पन नहीं था, मासूम बच्चे के से चहल थे। वो उछल कूद रही थी और अपने दिल ही में ख़ुश हो रही थी। उस को इस बात का होश ही नहीं रहा था कि वो चार चिड़ियां जो हौज़ के ऊपर बे-क़रारी से फड़ फड़ाती दायरा बनाती उड़ रही हैं उन के दिल हांप रहे हैं और बहुत मुम्किन है वो हाँपते हाँपते उन के सीनों से उछल कर हौज़ में गिर पड़ें। वो अपनी ख़ुशी में मस्त थी।

ऊपर उड़ी हुई चिड़ियों में एक चिड़िया ने जो शक्ल-ओ-सूरत के एतबार से चिड़ा मालूम होता था कहा “तुम रो रही हो?”

चिड़िया ने अपनी उड़ान हल्की कर दी, चुनांचे तेज़ हवा में लुढ़कते हुए उस ने अपने नन्हे से नरम-ओ-नाज़ुक और रेशम जैसे पर को अपनी चोंच से फुला कर अपनी एक आँख पोंछी और जल्दी से अपने दूसरे परों के अंदर उस आँसू आलूद परी को छुपा लिया। दूसरी आँख के इस जल दीप को उस ने ऐसे ही नन्हे से मख़मलीं पर से फूंक मारी, वो फ़ौरन राख बन कर हौज़ की सुर्ख़ आँखों में सुरमे की तहरीर बन कर तैरने लगी।

हौज़ की ये तबदीली देख कर बाक़ी तीन चिड़ियों ने पलट कर चौथी चिड़िया की तरफ़ देखा और आँखों में उस की सरज़निश की और एक दम अपने सारे पर समेट लिए और चश्म-ए-ज़दन में वो हौज़ के अंदर थीं हौज़ का लाल लाल पानी एक लहज़े के लिए थरथरा उठा। उस ने ज़बरदस्ती उन की बंद चोंचों में अपनी बड़ी चोंच से अपने ख़ून की एक एक बूँद डालने की कोशिश की, जिस तरह माँ बाप अपने प्यारे बच्चों के हलक़ में चमचों के ज़रिये से दवा टपकाते हैं, मगर वो ना खुलीं

वो समझ गया कि इस का क्या मतलब है चुनांचे उस की आँखों से उतना ही सफ़ैद पानी बह निकला जितना इस हौज़ में लाल था जो वो क़ातिल इस एक लाल बूँद के बग़ैर, जो उस के ऊपर उड़ रही थी और इस सफ़ैद पानी समेत, जो वो उस के वजूद में छोड़ गया था।

उस ने ये सफ़ैद आँसू और बहाने चाहे मगर वो बिलकुल ख़ुश्क थे। एक सिर्फ़ उस की आँखों की बसारत बाक़ी थी वो उसी पर क़ाने होगया उस ने देखा कि उस के हौज़ के पानी का रंग बदल रहा है। उस के लिए ये बड़ी तकलीफ़-देह बात थी कि जब क़त्ल नहीं किया गया था। क़त्ल के बाद तो उस ने सुना था कि सफ़ैद से सफ़ैद ख़ून भी जीता जागता सुर्ख़ हो जाता है।

दिन ब-दिन हौज़ का पानी नई रंग इख़्तियार करने लगा शुरू शुरू में तो वो गर्मगर्म सुर्ख़ क़ुर्मुज़ी था। थोड़ी देर में भूसला-पन उस में पैदा होने लगा ये तबदीली बड़ी सुस्त रफ़्तार थी।

उस ने सुना था कि क़ुदरत अटल है वो कभी तबदील नहीं होती। वो सोचता कि ये क़ुदरत कैसी है जो उस की अपने अनासिर से तख़लीक़ की हुई चीज़ को टुकड़े टुकड़े कर के अब उसे किसी तस्वीर-साज़ की प्लेट बना रही है जिस पर वो एक मर्तबा साफ़ और शुद्ध रंग लगा कर फिर उस पर सैंकड़ों दूसरे रंगों की तहें चढ़ा देता है और बहुत मसरूर होता है इस में मसर्रत अंगेज़ बात ही क्या है और इस बात के लिए कि एक बे-गुनाह को क़त्ल करवा देना ? ये और भी ज़्यादा अजीब है।

मैं अगर अपने क़ातिल की जगह होता तो क्या करता ? हाँ क्या करता?

उसे अपने हाथों से नुक़रई तारों वाला हार पहनाता ज़र-बफ़्त की उस की उचकन हो, होख़ सर-तले दार दस्तार और उस ताइर-ताज़ी पर सवार जिस पर ज़र-बफ़्त की झूल हो और वो उस पर सवार हो कर क़ुदरत बानो को दुल्हन बना कर घर लाने के लिए रवाना हो जाये। उस के जल्व में सिर्फ़ उस के ख़ून के क़तरे हूँ।

वो सोचता कितनी शानदार सवारी होती जो आज तक किसी को भी नसीब नहीं हुई। वो एक बहुत ऊंचे दरख़्त पर अपना घोंसला बनाता जिस में हुजल-ए-उरूसी को बिठाता। उस का चेहरा हया के बाइस रंग बिरंग के परों के घूंघट की ओट में होता। वो उस निक़ाब को बहुत हौलेहौले उठाता। जूं जूं निक़ाब ऊपर उठती, उस का दिल नफ़रत-ओ-हक़ारत से लबरेज़ होता जाता। उस के इंतिक़ामी जज़्बे की आग और ज़्यादा तेज़ होती जाती जैसे उस की नक़ाब के परास पर तेल निचुड़ रहे हों लेकिन वो इस जज़्बे को अपने दिल में वहीं दबा देता जैसे वो मुरझाए हुए फूलों की रूखी सूखी और बे-कैफ़ पत्तियां हैं जिन्हें कई नन्ही नन्ही नाग सपनियों ने फूंकें मार मार कर डस दिया हो।

शब-ए-उरूसी में उस ने अपनी दुलहन से बड़ी प्यार और मुहब्बत भरी बातें कीं, ऐसी बातें जिन को सुनने के बाद सब परिन्दों ने मुत्तफ़िक़ा तौर पर ये फ़ैसला किया कि ये ऐसा कलाम है जो अगर फ़रिश्ते और हूरें भी अपने साज़ों पर गाएँ तो ख़ुद को आजिज़ समझें और बरबतों के तार झुँझला उठें कि ये नग़्मा हम से क्यों अदा नहीं हो सकता। आख़िर कार फ़रिश्तों ने अपने हलक़ में अपनी अपनी दुलहनों की मांग के सींदूर भर लिए और मर गए। हूरों ने अपने बरबत तोड़ डाले और उन के बारीक तारों का फंदा बना कर ख़ुदकुशी कर ली।

उस को अपने ये अफ़्क़ार बहुत पसंद आए थे। इस लिए कि ये ग़ैब से आए हैं। चुनांचे उस ने गाना शुरू किया। उस का अलहान वाक़ई इल्हामी था। अगर परिन्दों के हुजूम को वो सिर्फ़ चंद नग़्मे सुनाता तो वो यक़ीनन बेखु़दी के आलम में ज़ख़्मी तुयूर के मानिंद फड़फड़ाने लगतीं और इसी तरह फड़फड़ाती फड़फड़ाती क़ुदरत के अश्जार को प्यारी हो जातीं। वो अपने तमाम पत्ते और अपनी कोमल शाख़ों को नोच कर उन की लाशों पर आराम से रख देते। उधर बाग़ के सारे फूल अपनी तमाम पत्तियां उन पर निछावर कर देते। खुली और अन-खुली गलियां भी ख़ुद को उन की मजमूई तुर्बत की आराइश के लिए पेश कर देतीं।

फिर तमाम सर-निगूँ हो कर इंतिहाई ग़मनाक सुरों में धीमे धीमे सुरों में शहीदों का नोहा गातीं सातों आसमानों के तमाम फ़रिश्ते अपने अपने आसमान की खिड़कियां खोल कर इस सोग के जश्न का नज़ारा करते और उन की आँखें आँसूओं से लबरेज़ हो जातीं जो हल्की हल्की फ़ुवार की सूरत में इन ख़ाकी शहीदों की फूलों से लदी फंदी तुर्बत को नम आलूदा कर देतीं ताकि उस की ताज़गी देर तक रहे।

सुना है कि ये तुर्बत देर तक क़ायम रही फूल जब बिलकुल बासी हो जाते, पत्ते ख़ुश्क हो जाते तो उन की जगह अपने बदन से नोच नोच कर आहिस्ता आहिस्ता इस तुर्बत पर रख दिए जाते।

उधर दूसरे बाग़ में जो अपनी ख़ूबसूरती के बाइस तमाम दुनिया में बहुत मशहूर था। एक ताहिर जिस का नाम बुलबुल यानी हज़ार दास्तान है अपने हुस्न और अपनी ख़ुश-इलहानी पर नाज़ां बल्कि यूं कहिए कि मग़रूर था। बाग़ की हर कली उस पर सौ जान से फ़िदा थी मगर वो उन को मुँह नहीं लगाता।

अगर कभी अज़राह-ए-तफ़रीह वो कभी किसी कली पर अपनी ख़ूबसूरत मिनक़ार की ज़र्ब लगा कर उसे क़ुदरत के उसूलों के ख़िलाफ़ पहले ही खोल देता तो उस ग़रीब का जी बाग़ बाग़ हो जाता, पर वो शादी मर्ग हो जाती।

और दिल ही दिल में दूसरी खुली अन-खुली कलियां हसद और रश्क के मारे जल भुन कर राख हो जातीं और वो किसी चट्टान की चोटी के सख़्त पत्थर पर हौले से यूं बैठता कि उस पत्थर को उस का बोझ महसूस न हो। इतमिनान कर के उस पत्थर ने उसे ख़ंदापेशानी से क़बूल कर लिया है तो वो मोम कर देने वाला एक हुज़्निया नग़्मा शुरू करता ब-फ़र्त-ए-अदब और तअस्सुर के बाइस सर-निगूँ हो जाते।

कलियां सोचतीं कि ये क्या वजह है कि वो हमें अपने इल्तिफ़ात से महरूम रखता है हम में से अक्सर जल जल के भस्म होगईं पर उस को हमारी कुछ पर्वा नहीं।

एक सफ़ैद कली अपने शबनमी आँसू पूंछ कर कहती है “ऐसा न कहो बहन उस को हमारी हर अदा ना-पसंद है।”

काली कली कहती। “तू सफ़ैद झूट बोलती है मेरी तरफ़ कभी आँख उठा कर देख दोनों दीदे फोड़ डालूं।”

कासनी कली को दुख होता : “ऐसा करोगी तो तुम कहाँ रहोगी?”

सफ़ैद कली तंज़िया अंदाज़ में इस मग़रूर परिंदे की तरफ़ से जवाब देती। “इस के लिए दुनिया के तमाम बाग़ों की कलियों के मुँह खुले हैं वो नीले आसमान के नीचे जहां भी चाहे अपने हसीन ख़ेमे गाड़ सकता है।”

काली कली मुस्कुराती ये मुस्कुराहट संग-ए-अस्वद के छोटे से काले तरीड़े के मानिंद खिलती।

“सफ़ैद कली ने ठीक कहा है। ख़्वाह मुझे ख़ुश करने के लिए ही कहा हो मैं यहां का बादशाह हूँ”

सफ़ैद कली और ज़्यादा निखर गई। “हुज़ूर! आप शहनशाह हैं और हम सब आप की कनीज़ें।”

काली कली ने ज़ोर से अपने पर फड़फड़ाए जैसे वो बहुत ग़ुस्से में है। “हम मैं मुझे शामिल न करो मुझे उस से नफ़रत है।”

जूंही काली कली की ज़बान से ये गुस्ताख़ाना अल्फ़ाज़ निकले, सब चिड़ियां डर के मारे फड़फड़ाती हुई वहां से उड़ गईं। एक सिर्फ़ काली कली बाक़ी रह गई।

उस ने आँख उठा कर भी इस चट्टान को न देखा जिस के एक कंगरे की नोक पर वो अकड़ कर खड़ा था काली कली उस के क़दमों में थी अपनी इस बे-एतिनाई और राऊनत के साथ।

हसीन-ओ-जमील बुलबुल को इस बे-एतिनाई और राऊनत से पहली मर्तबा दो-चार होना पड़ा था। उस के वक़ार को सख़्त सदमा पहुंचा, चट्टान से नीचे उतर कर वो हौले हौले जैसे टहल रहा है, काली कली के क़रीब से गुज़रा गोया वो उस को मौक़ा दे रहा है कि तुम ने जो ग़लती की है दुरुस्त कर लो पर उस ने इस फ़य्याज़ाना तोहफ़े को ठुकरा दिया।

इस पर बुलबुल और झुँझलाया और मुड़ कर काली कली से मुख़ातब हुआ। “ऐसा मालूम होता है, तुम ने मुझे पहचाना नहीं।”

काली कली ने उस की तरफ़ देखे बग़ैर कहा। “ऐसी तुम में कौन सी ख़ूबी है जो कोई तुम्हें याद रखे तुम एक मामूली चिड़े हो, जो लाखों यहां पड़े झक मारते हैं।”

बुलबुल सरापा अज्ज़ होगया। “देखो, मैं इस बाग़ का तमाम हुस्न तुम्हारे क़दमों में ढेर कर सकता हूँ”

काली कली के होंटों पर काली तंज़िया मुस्कुराहट पैदा हुई। “मैं रंगों के बे-ढब, बे-जोड़ रंगों के मिलाप को हुस्न नहीं कह सकती हुस्न में यक-रंगी और यक-आहंगी होनी चाहिए।”

“तुम अगर हुक्म दो तो मैं अपनी सुर्ख़ दुम नोच कर यहां फेंक दूंगा ”

“तुम्हारी सुर्ख़ दुम के पर सुरख़ाब के पर तो नहीं हो जाऐंगे रहने दो अपनी दुम में मेरी दुम देखते रहा करो, जो संग-ए-अस्वद की तरह काली है और आबनूस की तरह काली और चमकीली।”

ये सुन कर वो और ज़्यादा झुँझला गया और सोचे समझे बग़ैर काली कली से बग़ल-गीर होगया। फिर फ़ौरन ही पीछे हिट कर माज़रत तलब करने लगा, “मुझे माफ़ कर देना। बाग़ की मग़रूर तरीन हसीना!”

काली कली चंद लम्हात बिलकुल ख़ामोश रही, फिर उस के बाद ऐसा मालूम हुआ कि रात के घुप्प अंधेरे में अचानक दो दिए जल पड़े हैं। “में तुम्हारी कनीज़ हूँ प्यारे बुलबुल!”

बुलबल ने चोंच का एक ज़बरदस्त ठूंगा मारा और बड़ी नफ़रत-आमेज़ ना-उम्मीदी से कहा। “जा, दूर हो जा, मेरी नज़रों से और अपने रंग की स्याही में सारी उम्र अपने दिल की स्याही घोलती रह ”

सआदत हसन मंटो (दस्तख़त)

४ जनवरी १९५६-ई-(?) 

क़ादिरा क़साई सआदत हसन मन्टो saadat hasan manto

ईदन बाई आगरे वाली छोटी ईद को पैदा हुई थी, यही वजह है कि उस की माँ ज़ुहरा जान ने उस का नाम इसी मुनासबत से ईदन रख्खा। ज़ुहरा जान अपने वक़्त की बहुत मशहूर गाने वाली थी, बड़ी दूर दूर से रईस उस का मुजरा सुनने के लिए आते थे।

कहा जाता है कि मेरठ के एक ताजिर अबदुल्लाह से जो लाखों में खेलता था, उसे मुहब्बत हो गई, उस ने चुनांचे इसी जज़्बे के मातहत अपना पेशा छोड़ दिया। अबदुल्लाह बहुत मुतअस्सिर हुआ और उस की माहवार तनख़्वाह मुक़र्रर कर दी कोई तीन सौ के क़रीब। हफ़्ते में तीन मर्तबा उस के पास आता, रात ठहरता। सुबह सवेरे वहाँ से रवाना हो जाता।

जो शख़्स ज़ुहरा जान को जानते हैं और आगरे के रहने वाले हैं उन का ये बयान है कि उस का चाहने वाला एक बढ़ई था मगर वो उसे मुँह नहीं लगाती थी। वो बेचारा ज़रूरत से ज़्यादा मेहनत-ओ-मशक़्क़त करता और तीन चार महीने के बाद रुपये जमा कर के ज़ुहरा जान के पास जाता मगर वो उसे धुतकार देती।

आख़िर एक रोज़ उस बढ़ई को ज़ुहरा जान से मुफ़स्सल गुफ़्तुगू करने का मौक़ा मिल ही गया पहले तो वो कोई बात ना कर सका। इस लिए कि उस पर अपनी महबूबा के हुस्न का रोब तारी था लेकिन उस ने थोड़ी देर के बाद जुर्अत से काम लिया और उस से कहा: “ज़ुहरा जान मैं ग़रीब आदमी हूँ, मुझे मालूम है कि बड़े बड़े धन वाले तुम्हारे पास आते हैं और तुम्हारी हर अदा पर सैंकड़ों रुपये निछावर करते हैं लेकिन तुम्हें शायद ये बात मालूम नहीं कि ग़रीब की मुहब्बत धन दौलत वालों के लाखों रूपयों से बड़ी होती है मैं तुम से मुहब्बत करता हूँ मालूम नहीं क्यूँ”

ज़ुहरा जान हँसी इस हँसी से बढ़ई का दिल मजरूह हो गया “तुम हँसती हो मेरी मुहब्बत का मज़ाक़ उड़ाती हो इस लिए कि ये कंगले की मुहब्बत है जो लकड़ियाँ चीर कर अपनी रोज़ी कमाता है याद रख्खो ये तुम्हारे लाखों में खेलने वाले तुम्हें वो मुहब्बत और प्यार नहीं दे सकते जो मेरे दिल में तुम्हारे लिए मौजूद है”

ज़ुहरा जान उकता गई, उस ने अपने एक मीरासी को बुलाया और उस से कहा कि बढ़ई को बाहर निकाल दो लेकिन वो इस से पहले ही चला गया।

एक बरस के बाद ईदन पैदा हुई उस का बाप अबदुल्लाह था या कोई और उस के मुतअल्लिक़ कोई भी वसूक़ से कुछ नहीं कह सकता बअज़ का ख़याल है कि वो ग़ाज़िआबाद के एक हिंदू सेठ के नुतफ़े से है किसी के नुतफ़े से भी हो मगर बला की ख़ूबसूरत थी।

इधर ज़ुहरा जान की उम्र ढलती गई, उधर ईदन जवान होती गई, उस की माँ ने उस को मौसीक़ी की बड़ी अच्छी तालीम दी, लड़की ज़हीन थी कई उसतादों से उस ने सबक़ लिए और उन से दाद वसूल की।

ज़ुहरा जान की उम्र अब चालीस बरस के क़रीब हो गई, वो अब उस मंज़िल से गुज़र चुकी थी जब किसी तवाइफ़ में कशिश बाक़ी रहती है, वो अपनी इकलौती लड़की ईदन के सहारे जी रही थी, अभी तक उस ने उस से मुजरा नहीं किराया था। वो चाहती थी कि बहुत बड़ी तक़रीब हो जिस का इफ़्तिताह कोई राजा नवाब करे।

ईदन बाई के हुस्न के चर्चे आम थे। दूर दूर तक अय्याश रईसों में इस के तज़किरे होते थे, वो अपने एजैंटों को ज़ुहरा जान के पास भेजते और ईदन की नथुनी उतारने के लिए अपनी अपनी पेशकश भेजते, मगर उस को इतनी जल्दी नहीं थी वो चाहती थी कि मिस्सी की रस्म बड़ी धूम धाम से हो और वो ज़्यादा से ज़्यादा क़ीमत वसूल करे उस की लड़की लाखों में एक थी सारे शहर में उस जैसी हसीन लड़की और कोई नहीं थी।

उस के हुस्न की नुमाइश करने के लिए वो हर जुमेरात की शाम को उस के साथ पैदल बाहर सैर को जाती, इश्क़ पेशा मर्द उस को देखते तो दिल थाम थाम लेते।

फँसी फँसी चोली में गदराया हुआ जोबन, सुडौल बांहें मख़रूती उंगलियाँ जिन के नाख़ुनों पर जीता जीता लहू, ऐसा रंग, ठुमका सा क़द, घुंगराले बाल क़दम क़दम पर क़ियामत ढाती थी।

आख़िर एक रोज़ ज़ुहरा जान की उमीद बर आई। एक नवाब ईदन पर ऐसा लट्टू हुआ कि वो मुंहमाँगे दाम देने पर रज़ामंद हो गया। ज़ुहरा जान ने अपनी बेटी की मिस्सी की रस्म के लिए बड़ा एहतिमाम किया, कई देगें पुलाव और मुतंजन की चढ़ाई गईं।

शाम को नवाब साहब अपनी बग्घी में आए, ज़ुहरा जान ने उन की बड़ी आओ भगत की नवाब साहब बहुत ख़ुश हुए, ईदन दूल्हन बनी हुई थी, नवाब साहब के इरशाद के मुताबिक़ उस का मुजरा शुरू हुआ फट पड़ने वाला शबाब था जो महव-ए-नग़्मा-सराई था।

ईदन उस शाम बला की ख़ूबसूरत दिखाई दे रही थी, उस की हर जुंबिश हर अदा उस के गाने की हर सुर ज़ुहद-ए-शिकन थी। नवाब साहब गाव तकिये का सहारा लिए बैठे थे। उन्हों ने सोचा कि आज रात वो जन्नत की सैर करेंगे जो किसी और को नसीब नहीं हुई।

वो ये सोच ही रहे थे कि अचानक एक बेहंगम सा आदमी अंदर दाख़िल हुआ और ज़ुहरा जान के पास बैठ गया, वो बहुत घबराई, ये वही बढ़ई था उस का आशिक़-ए-राज़, बहुत मैले और गंदे कपड़े पहने था। नवाब साहब को जो बहुत नफ़ासत-पसंद थे, उबकाईयाँ आने लगीं। उन्हों ने ज़ुहरा जान से कहा : “ये कौन बदतमीज़ है?”

बढ़ई मुस्कुराया “हुज़ूर! मैं इन का आशिक़ हूँ”

नवाब साहब की तबीयत और ज़्यादा मुक़द्दर हो गई, ज़ुहरा जान “निकालो इस हैवान को बाहर”

बढ़ई ने अपने थैले से आरी निकाली और बड़ी मज़बूती से ज़ुहरा जान को पकड़ कर उस की गर्दन पर तेज़ी से चलाने शुरू कर दी, नवाब साहब और मीरासी वहाँ से भाग गए, ईदन बेहोश हो गई।

बढ़ई ने अपना काम बड़े इतमिनान से ख़त्म किया और लहू भरी आरी अपने थैले में डाल कर सीधा थाने गया और इक़बाल-ए-जुर्म कर लिया। कहा जाता है कि उसे उम्र क़ैद हो गई थी।

ईदन को अपनी माँ के क़त्ल होने का इस क़दर सदमा हुआ कि वो दो अढ़ाई महीने तक बीमार रही। डाक्टरों का ख़याल था कि वो ज़िंदा नहीं रहेगी मगर आहिस्ता आहिस्ता उस की तबीयत सँभलने लगी और वो इस क़ाबिल हो गई कि चल फिर सके। हस्पताल में उस की तीमारदारी सिर्फ़ उस के उस्ताद और मीरासी ही करते थे। वो नवाब और रईस जो उस पर अपनी जान छिड़कते थे, भूले से भी उस को पूछने के लिए ना आए वो बहुत दिल बर्दाश्ता हो गई।

वो आगरा छोड़कर दिल्ली चली आई मगर उस की तबीयत इतनी उदास थी कि उस का जी क़तअन मुजरा करने को नहीं चाहता था। उस के पास बीस पच्चीस हज़ार रुपय के ज़ेवरात थे जिन में आधे उस की मक़्तूल माँ के थे वो उन्हें बेचती रही और गुज़ारा करती रही।

औरत को ज़ेवर बड़े अज़ीज़ होते हैं, उस को बड़ा दुख होता था जब वो कोई चूड़ी या निकलस औने पौने दामों बेचती थी अजब आलम था ख़ून पानी से भी अर्ज़ां हो रहा था।

मुस्लमान धड़ा धड़ पाकिस्तान जा रहे थे कि उन की जानें महफ़ूज़ रहें। ईदन ने भी फ़ैसला कर लिया कि वो दिल्ली में नहीं रहेगी। लाहौर चली आएगी। बड़ी मुश्किलों से अपने कई जे़वरात बेच कर वो लाहौर पहुँच गई लेकिन रास्ते में उस की तमाम बेश-क़ीमत पिशवाज़ें और बाक़ी-मांदा ज़ेवर इस के अपने भाई मुसलमानों ही ने ग़ायब कर दिए।

जब वो लाहौर पहुंची तो वो लुटी पिटी थी लेकिन उस का हुस्न वैसे का वैसा था। दिल्ली से लाहौर आते हुए हज़ारों ललचाई हुई आँखों ने उस की तरफ़ देखा मगर इस ने बे-एतिनाई बरती।

वो जब लाहौर पहुंची तो इस ने सोचा कि ज़िंदगी बसर कैसे होगी? उस के पास तो चने खाने के लिए भी चंद पैसे नहीं थे लेकिन लड़की ज़हीन थी सीधी उस जगह पहुंची जहाँ उन की हम-पेशा रहती थीं यहाँ उस की बड़ी आओ भगत की गई।

उन दिनों लाहौर में रुपया आम था, हिंदू जो कुछ यहाँ छोड़ गए थे, मुसलमानों की मिल्कियत बन गया था। हीरा मंडी के वारे न्यारे थे।

ईदन को जब लोगों ने देखा तो वो उस के आशिक़ हो गए। रात भर उस को सैंकड़ों गाने सुनने वालों की फरमाइशें पूरी करना पड़तीं। सुबह चार बजे के क़रीब जब कि उस की आवाज़ जवाब दे चुकी होती वो अपने सामईन से मआज़रत तलब करती और औंधे मुँह अपनी चारपाई पर लेट जाती।

ये सिलसिला क़रीब क़रीब डेढ़ बरस तक जारी रहा ईदन उस के बाद एक अलाहिदा कोठा कराए पर लेकर वहाँ उठ आई, चूँकि जहाँ वो मुक़ीम थी, उस नाइका को उसे अपनी आधी आमदन देना पड़ती थी।

जब उस ने अलाहिदा अपने कोठे पर मुजरा करना शुरू किया तो उस की आमदन में इज़ाफ़ा हो गया। अब उसे हर क़िस्म की फ़राग़त हासिल थी उस ने कई ज़ेवर बना लिए कपड़े भी अच्छे से अच्छे तैय्यार करा लिए।

उसी दौरान में उस की मुलाक़ात एक ऐसे शख़्स से हुई जो ब्लैक मार्कीट का बादशाह था, उस ने कम अज़ कम दो करोड़ रुपय कमाए थे, ख़ूबसूरत था इस के पास तीन कारें थीं, पहली ही मुलाक़ात पर वो ईदन के हुस्न से इस क़दर मुतअस्सिर हुआ कि उस ने अपनी खड़ी सफ़ैद पेकार्ड उस के हवाले कर दी।

इस के इलावा वो हर शाम आता और कम अज़ कम दो ढाई सौ रुपये उस की नज़र ज़रूर करता। एक शाम वो आया तो चाँदनी किसी क़दर मैली थी, उस ने ईदन से पूछा “क्या बात है आज तुम्हारी चाँदनी इतनी गंदी है”

ईदन ने एक अदा के साथ जवाब दिया “आज कल लट्ठा कहाँ मिलता है?”

दूसरे दिन इस ब्लैक मार्कीट बादशाह ने चालीस थान लट्ठे के भिजवा दिए, उस के तीसरे रोज़ बाद उस ने ढाई हज़ार रुपये दिए कि ईदन अपने घर की आराइश का सामान ख़रीद ले।

ईदन को अच्छा गोश्त खाने का बहुत शौक़ था, जब वो आगरे और दिल्ली में थी तो उसे उम्दा गोश्त नहीं मिलता था मगर लाहौर में उसे क़ादिरा कसाई बेहतरीन गोश्त मुहय्या करता था बगैर रेशे के हर बूटी ऐसी होती थी जैसे रेशम की बनी हो।

दुकान पर अपना शागिर्द बिठा कर क़ादिरा सुबह सवेरे आता और डेढ़ सेर गोश्त जिस की बोटी बोटी फड़क रही होती, ईदन के हवाले कर देता उस से देर तक बातें करता रहता जो आम तौर पर गोश्त ही के बारे में होतीं।

ब्लैक मार्कीट का बादशाह जिस का नाम ज़फ़र शाह था, ईदन के इश्क़ में बहुत बुरी तरह गिरफ़्तार हो चुका था, उस ने एक शाम ईदन से कहा कि वो अपनी सारी जायदाद, मनक़ूला और गैर मनक़ूला उस के नाम मुंतक़िल करने के लिए तैय्यार है अगर वो उस से शादी कर ले मगर ईदन ना मानी ज़फ़र शाह बहुत मायूस हुआ।

उस ने कई बार कोशिश की कि ईदन उस की हो जाये मगर हर बार उसे नाकामी का सामना करना पड़ा। वो मुजरे से फ़ारिग़ हो कर रात के दो तीन बजे के क़रीब बाहर निकल जाती थी, मालूम नहीं कहाँ।

एक रात जब ज़फ़र शाह अपना ग़म ग़लत कर के यानी शराब पी कर पैदल ही चला आ रहा था कि उस ने देखा कि साईं के तकिए के बाहर ईदन एक निहायत बदनुमा आदमी के पाँव पकड़े इल्तिजाएँ कर रही है कि “ख़ुदा के लिए मुझ पर नज़र-ए-करम करो मैं दिल-ओ-जान से तुम पर फ़िदा हूँ तुम इतने ज़ालिम क्यूँ हो” और वो शख़्स जिसे ग़ौर से देखने पर ज़फ़र शाह ने पहचान लिया कि क़ादिरा कसाई है उसे धुतकार रहा है। “जा हम ने आज तक किसी कनजरी को मुँह नहीं लगाया मुझे तंग ना क्या कर”

क़ादिरा उसे ठोकरें मारता रहा और ईदन इसी में लज़्ज़त महसूस करती रही।

२४, मई ५४ ई

कसर-ए-नफ्सी सआदत हसन मन्टो saadat hasan manto

चलती गाड़ी रोक ली गई। जो दूसरे मज़हब

के थे उन को निकाल निकाल कर तलवारों और गोलीयों

से हलाक कर दिया गया। इस से फ़ारिग़ हो कर गाड़ी के

बाक़ी मुसाफ़िरों की हलवे, दूध और फलों से तवाज़ो

की गई।गाड़ी चलने से पहले तवाज़ो करने वालों के

मुंतज़िम ने मुसाफ़िरों को मुख़ातब करके कहा। “भाईओ और

बहनो। हमें गाड़ी की आमद की इत्तिला बहुत देर में

मिली। यही वजह है कि हम जिस तरह चाहते थे उस

तरह आप की ख़िदमत न कर सके”।

क़र्ज़ की पीते थे सआदत हसन मन्टो

एक जगह महफ़िल जमी थी। मिर्ज़ा ग़ालिब वहां से उकता कर उठे। बाहर हुआदार मौजूद था। उस में बैठे और अपने घर का रुख़ किया। हवादार से उतर कर जब दीवान-ख़ाने में दाख़िल हुए तो क्या देखते हैं कि मथुरा दास महाजन बैठा है।

ग़ालिब ने अंदर दाख़िल होते ही कहा। “अख़ाह! मथुरा दास! भई तुम आज बड़े वक़्त पर आए………. मैं तुम्हें बुलवाने ही वाला था!”

मथुरा दास ने ठेट महाजनों के अंदाज़ में कहा। “हुज़ूर रूपों को बहुत दिन होगए। फ़क़त दो क़िस्त आप ने भिजवाए थे............. इस के बाद पाँच महीने होगए, एक पैसा भी आप ने न दिया।”

असद उल्लाह ख़ान ग़ालिब मुस्कुराए “भई, मथुरा दास देने को मैं सब दे दूंगा। गले गले पानी दूंगा........... दो एक जायदाद अभी मेरी बाक़ी है।”

“अजी सरकार! इस तरह व्यपार हो चुका। न असल में से न सूद में से, पहला ही ढाई हज़ार वसूल नहीं हुआ। छः सौ छप्पन सूद के होगए हैं।”

मिर्ज़ा ग़ालिब ने हुक़्क़े नेय पकड़ कर एक कश लिया। “लाला, जिस दरख़्त का फल खाना मंज़ूर होता है, उस को पहले पानी देते हैं............... मैं तुम्हारा दरख़्त हूँ पानी दो तो अनाज पैदा हो।”

मथुरा दास ने अपनी धोती की लॉंग ठीक की। “जी, दीवाली को बारह दिन बाक़ी रह गए हैं। खाता बंद किया जाएगा। आप पहले रुपय का असल सूद मिला कर दस्तावेज़ बना दें तो आगे का नाम लें।”

मिर्ज़ा ग़ालिब ने हुक़्क़े नेय एक तरफ़ की “लो, अभी दस्तावेज़ लिखे देता हूँ। पर शर्त ये है कि दो हज़ार अभी अभी मुझे और दो।”

मथुरा दास ने थोड़ी देर ग़ौर किया। “अच्छा, में इशटाम मंगवाता हूँ.............. बही साथ लाया हूँ। आप मुंशी ग़ुलाम रसूल अर्ज़ी नवीस को बुलालें। पर सूद वही सवा रुपया सैकड़ा होगा।”

“लाला कुछ तो इंसाफ़ करो। बारह आने सूद लिखवाए देता हूँ।”

मथुरा दास ने अपनी धोती की लॉंग दूसरी बार दुरसत की। “सरकार बारह आने पर बारह बरस भी कोई महाजन क़र्ज़ नहीं देगा.............. आजकल तो ख़ुद बादशाह सलामत को रुपय की ज़रूरत है।”

उन दिनों वाक़ई बहादुर शाह ज़फ़र की हालत बहुत नाज़ुक थी, उस को अपने अख़राजात के लिए रुपय की हर वक़्त ज़रूरत रहती थी।

बहादुर शाह तो ख़ैर बादशाह था लेकिन मिर्ज़ा ग़ालिब महज़ शायर थे। गो वो अपने शेअरों में अपना रिश्ता सिपाह गिरी से जोड़ते थे।

ये मिर्ज़ा साहिब की ज़िंदगी के चालीसवीं और पैंतालीसवीं साल के दरमयानी अर्से की बात है। जब मथुरा दास महाजन ने उन पर अदम-ए-अदाइगी क़र्ज़ा के बाइस अदालत-ए-दीवानी में दावा दायर किया......... मुक़द्दमे की समाअत मिर्ज़ा साहिब के मुरब्बी और दोस्त मुफ़ती सदर उद्दीन आज़ुर्दा को करना थी। जो ख़ुद बहुत अच्छे शायर और ग़ालिब के मद्दाह थे।

मुफ़ती साहब के मिर्धाने अदालत के कमरे से बाहर निकल कर आवाज़ दी। “लाला मथुरा दास महाजन मुद्दई और मिर्ज़ा असद उल्लाह ख़ान ग़ालिब मुद्दआ-अलैह हाज़िर हैं?”

मथुरा दास ने मिर्ज़ा ग़ालिब की तरफ़ देखा और मिर्धे से कहा। “जी दोनों हाज़िर हैं।”

मिर्धे ने रूखेपन से कहा। “तो दोनों हाज़िर-ए-अदालत हों।”

मिर्ज़ा ग़ालिब ने अदालत में हाज़िर हो कर मुफ़्ती सदर उद्दीन आज़ुर्दा को सलाम किया.......... मुफ़्ती साहब मुस्कुराए।

“मिर्ज़ा नौशा, ये आप इस क़दर क़र्ज़ क्यों लिया करते हैं............... आख़िर ये मुआमला क्या है?”

ग़ालिब ने थोड़े तवक्कुफ़ के बाद कहा। “क्या अर्ज़ करूं............. मेरी समझ में भी कुछ नहीं आता।”

मुफ़्ती सदर उद्दीन मुस्कुराए: “कुछ तो है, जिस की पर्दा-दारी है।”

ग़ालिब ने बरजस्ता कहा। “एक शेअर मौज़ूं होगया है मुफ़्ती साहब............. हुक्म हो तो जवाब में अर्ज़ करूं।”

“फ़रमाईए!”

ग़ालिब ने मुफ़्ती साहब और मथुरा दास महाजन को एक लहज़े के लिए देखा और अपने मख़सूस अंदाज़ में ये शेअर पढ़ा

क़र्ज़ की पीते थे मय, लेकिन समझते थे कि हाँ

रंग लाएगी हमारी फ़ाक़ा मस्ती, एक दिन

मुफ़्ती साहब बे-इख़्तियार हंस पड़े। “ख़ूब, ख़ूब........... क्यों साहब! रस्सी जल गई, पर बल न गया............ आप के इस शेअर की मैं तो ज़रूर दाद दूंगा। मगर चूँकि आप को असल और सूद, सब से इक़रार है। अदालत मुद्दई के हक़ में फ़ैसला दिए बग़ैर नहीं रह सकती।”

मिर्ज़ा ग़ालिब ने बड़ी संजीदगी से कहा। “मुद्दई सच्चा है, तो क्यों फ़ैसला उस के हक़ में न हो। और मैं ने भी सच्ची बात नस्र में न कही, नज़्म में कह दी।”

मुफ़्ती सदर उद्दीन आज़ुर्दा ने काग़ज़ात क़ानून एक तरफ़ रखे और मिर्ज़ा ग़ालिब से मुख़ातब हुए। “अच्छा, तो ज़र-ए-डिग्री मैं अदा कर दूँगा कि हमारी आप की दोस्ती की लाज रह जाये।”

मिर्ज़ा ग़ालिब बड़े ख़ुद्दार थे। उन्हों ने मुफ़्ती साहब से कहा। “हुज़ूर ऐसा नहीं होगा........... मुझे मथुरा दास का रुपया देना है। मैं बहुत जल्द अदा कर दूँगा।”

मुफ़्ती साहब मुस्कुराए। “हज़रत, रुपय की अदायगी, शायरी नहीं............. आप तकल्लुफ़ को बरतरफ़ रखीए............ मैं आप का मद्दाह हूँ............. मुझे आज मौक़ा दीजिए कि आप की कोई ख़िदमत कर सकूं।”

ग़ालिब बहुत ख़फ़ीफ़ हुए। “लाहौल वला............ आप मेरे बुज़ुर्ग हैं............ मुझे कोई सज़ा दे दीजिए कि आप सदर-अल-सुदूर हैं।”

“देखो, तुम ऐसी बातें मत करो......... ”

“तो और कैसी बातें करूं”

“कोई शेअर सनाईए।”

“सोचता हूँ.............. हाँ एक शेअर रात को होगया था.......... अर्ज़ किए देता हूँ............ ”

“फ़रमाईए”

“हम और वो सबब रंज आश्ना दुश्मन

मुफ़ती साहब ने अपने क़ानूनी क़लम से क़ानूनी काग़ज़ पर ये हुरूफ़ लिखे

“हम और वो बे-सबब रंज आश्ना दुश्मन, कि रखता है”

मुफ़्ती साहब बहुत महज़ूज़ हुए। ये शेअर आसानी से समझ आ सकने वाला नहीं। लेकिन वो ख़ुद बहुत बड़े शायर थे। इस लिए ग़ालिब की दक़ीक़ा बयानी को फ़ौरन समझ गए।

मिर्ज़ा ग़ालिब कुछ देर ख़ामोश रहे। ग़ालिबन उन को इस बात से बहुत कोफ़्त हुई थी कि मुफ़्ती साहब उन पर एक एहसान कर रहे हैं। मुफ़्ती साहब ने उन से पूछा: “हज़रत आप ख़ामोश क्यों हो गए?”

“जी कोई ख़ास बात नहीं”

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ

वर्ना क्या बात कि नहीं आती

“आप को बातें करना तो माशा अल्लाह आती हैं।”

ग़ालिब ने जवाब दिया: “जी हाँ ........... लेकिन बनाना नहीं आतीं।”

मुफ़्ती सदर उद्दीन मुस्कुराए। “अब आप जा सकते हैं.............. ज़र-ए-डिग्री मैं अदा कर दूँगा”

मिर्ज़ा ग़ालिब ने मुफ़्ती साहब का शुक्रिया अदा किया। “आज आप ने दोस्ती के तमस्सुक पर मोहर लगा दी। जब तक ज़िंदा हूँ, बंदा हूँ।”

मुफ़्ती सदर उद्दीन आज़ुर्दा ने उन से कहा। “अब आप तशरीफ़ ले जाईए.............. पर ख़याल रहे कि रोज़ रोज़ ज़र-ए-डिग्री मैं अदा नहीं कर सकता, आइन्दा एहतियात रहे।”

मिर्ज़ा ग़ालिब थोड़ी देर के लिए सोच में ग़र्क़ होगए।

मुफ़्ती साहब ने उन से पूछा। “क्या सोच रहे हैं आप?”

मिर्ज़ा ग़ालिब चौंक कर बोले। “जी! मैं कुछ भी नहीं सोच रहा था............ शायद कुछ सोचने की कोशिश कर रहा था। कि

मौत का एक दिन मुतअय्यन है

नींद क्यों रात भर नहीं आती

मुफ़्ती साहब ने उन से पूछा। “क्या आप को रात भर नींद नहीं आती?”

मिर्ज़ा ग़ालिब ने मुस्कुरा कर कहा। “किसी ख़ुश-नसीब ही को आती होगी।”

मुफ़्ती साहब ने कहा। “आप शायरी छोड़िए............ बस आइन्दा एहतियात रहे।”

मिर्ज़ा ग़ालिब अपने अंगरखे की शिकनें दरुस्त करते हुए बोले “आप की नसीहत पर चल कर साबित क़दम रहने की ख़ुदा से दुआ करूंगा........... मुफ़्ती साहब! मुफ़्त मुफ़्त की ज़हमत आप को हुई। नक़दन सिवाए शुक्र है के और क्या अदा करसकता हूँ। ख़ैर ख़ुदा आप को दस गुना दुनिया में, और सत्तर गुना आख़िरत में देगा।”

ये सुन कर मुफ़्ती सदर उद्दीन आज़ुर्दा ज़ेर-ए-लब मुस्कुराए। “आख़िरत वाले में तो आप को शरीक करना मुहाल है............ दुनिया के दस गुने में भी आप को एक कोड़ी नहीं दूंगा कि आप मै-ख़्वारी कीजिए।”

मिर्ज़ा ग़ालिब हंसे.............. “मय-ख़्वारी कैसी मुफ़्ती साहब!”

मय से ग़रज़ निशात है किस रूसियाह को

इक गौना बे-खु़दी मुझे दिन रात चाहिए

और ये शेअर सुना कर मिर्ज़ा ग़ालिब, अदालत के कमरे से बाहर चले गए। 

करामात सआदत हसन मन्टो saadat hasan manto

लूटा हुआ माल बरआमद करने के लिए पुलिस ने छापे मारने शुरू किए।

लोग डरके मारे लूटा हुआ माल रात के अंधेरे में बाहर फेंकने लगे। कुछ ऐसे भी थे जिन्हों ने अपना माल भी मौक़ा पा कर अपने से अलाहिदा कर दिया ताकि क़ानूनी गिरिफ़्त से बचे रहें।

एक आदमी को बहुत दिक़्क़त पेश आई। उस के पास शकर की दो बोरीयां थीं जो उस ने पंसारी की दुकान से लूटी थीं। एक तो वो जूं तूं रात के अंधेरे में पास वाले कुवें में फेंक आया, लेकिन जब दूसरी उठा कर उस में डालने लगा तो ख़ुद भी साथ चला गया।

शोर सुन कर लोग इकट्ठे होगए। कुवें में रस्सियां डाली गईं। दो जवान नीचे उतरे और उस आदमी को बाहर निकाल लिया... लेकिन चंद घंटों के बाद वो मर गया।

दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तिमाल के लिए उस कुँवें में से पानी निकाला तो वो मीठा था।

उसी रात उस आदमी की क़ब्र पर दिए जल रहे थे 

कबूतरों वाला साईं सआदत हसन मन्टो saadat hasan manto

पंजाब के एक सर्द देहात के तकिए में माई जीवां सुबह सवेरे एक ग़लाफ़ चढ़ी क़ब्र के पास ज़मीन के अंदर खुदे हुए गढ़े में बड़े बड़े उपलों से आग लगा रही है। सुबह के सर्द और मटियाले धुँदलके में जब वो अपनी पानी भरी आँखों को सुकेड़ कर और अपनी कमर को दुहरा करके, मुँह क़रीब क़रीब ज़मीन के साथ लगा कर ऊपर तले रखे हुए उपलों के अंदर फूंक घुसेड़ने की कोशिश करती है तो ज़मीन पर से थोड़ी सी राख उड़ती है और इस के आधे सफ़ैद और आधे काले बालों पर जो कि घिसे हुए कम्बल का नमूना पेश करते हैं बैठ जाती है और ऐसा मालूम होता है कि उस के बालों में थोड़ी सी सफेदी और आगई है।

उपलों के अंदर आग सुलगती है और यूं जो थोड़ी सी लाल लाल रोशनी पैदा होती है माई जीवां के स्याह चेहरे पर झुर्रियों को और नुमायां कर देती है।

माई जीवां ये आग कई मर्तबा सुलगा चुकी है। ये तकिया या छोटी सी ख़ानक़ाह जिस के अंदर बनी हुई क़ब्र की बाबत उस के परदादा ने लोगों को ये यक़ीन दिलाया था कि वो एक बहुत बड़े पीर की आरामगाह है, एक ज़माने से उन के क़बज़ा में थी। गामा साईं के मरने के बाद अब उस की होशियार बीवी एक तकीए की मुजाविर थी। गामा साईं सारे गांव में हर-दिलअज़ीज़ था। ज़ात का वो कुमहार था मगर चूँकि उसे तकीए की देख भाल करना होती थी। इस लिए उस ने बर्तन बनाने छोड़ दिए थे। लेकिन उस के हाथ की बनाई हुई कूंडियां अब भी मशहूर हैं। भंग घोटने के लिए वो साल भर में छः कूंडियां बनाया करता था जिन के मुताल्लिक़ बड़े फ़ख़्र से वो ये कहा करता था। “चौधरी लोहा है लोहा फ़ौलाद की कोंडी टूट जाये पर गामा साईं की ये कोंडी दादा ले तो उस का पोता भी इसी में भंग घोट कर पीए।”

मरने से पहले गामा साईं छः कूंडियां बना कर रख गया था जो अब माई जीवां बड़ी एहतियात से काम में लाती थी।

गांव के अक्सर बढे और जवान तकीए में जमा होते थे और सरदाई पिया करते थे। घोटने के लिए गामा साईं नहीं था पर उस के बहुत से चेले चाँटे जो अब सर और भवें मुंडा कर साईं बिन गए थे, इस के बजाय भंग घोटा करते थे और माई जीवां की सुलगाई हुई आग सुल्फ़ा पीने वालों के काम आती थी।

सुबह और शाम को तो ख़ैर काफ़ी रौनक रहती थी, मगर दोपहर को आठ दस आदमी माई जीवां के पास बेरी की छाओं में बैठे ही रहते थे। इधर उधर कोने में लंबी लंबी बेल के साथ साथ कई काबुक थे जिन में गामा साईं के एक बहुत पुराने दोस्त अब्बू पहलवान ने सफ़ैद कबूतर पाल रखे थे। तकीए की धूएँ भरी फ़िज़ा में उन सफ़ैद और चितकबरे कबूतरों की फड़फड़ाहट बहुत भली मालूम होती थी। जिस तरह तकीए में आने वाले लोग शक्ल व सूरत से मासूमाना हद तक बे-अक़ल नज़र आते थे इसी तरह ये कबूतर जिन में से अक्सर के पैरों में माई जीवां के बड़े लड़के ने झांझ पहना रखे थे बे-अक़ल और मासूम दिखाई देते थे।

माई जीवां के बड़े लड़के का असली नाम अबदुलग़फ़्फ़ार था। उसकी पैदाइश के वक़्त ये नाम शहर के थानेदार का था जो कभी कभी घोड़ी पर चढ़ कर मौक़ा देखने के लिए गांव में आया करता था और गामा साईं के हाथ का बना हुआ एक पियाला सरदाई का ज़रूर पिया करता था। लेकिन अब वो बात न रही थी। जब वो ग्यारह बरस का था तो माई जीवां उस के नाम में थानेदारी की बू सून्घ सकती थी मगर जब उस ने बारहवीं साल में क़दम रखा तो उस की हालत ही बिगड़ गई। ख़ासा तगड़ा जवान था पर न जाने क्या हुआ कि बस एक दो बरस में ही सचमुच का साईं बन गया। यानी नाक से रेंठ बहने लगा और चुप चुप रहने लगा। सर पहले ही छोटा था पर अब कुछ और भी छोटा होगया और मुँह से हर वक़्त लुआब सा निकलने लगा। पहले पहल माँ को अपने बच्चे की इस तबदीली पर बहुत सदमा हुआ मगर जब उस ने देखा कि उस की नाक से रेंठ और मुँह से लुआब बहते ही गांव के लोगों ने उस से ग़ैब की बातें पूछना शुरू करदी हैं और उस की हर जगह ख़ूब आओ भगत की जाती है तो उसे ढारस हुई कि चलो यूं भी तो कमा ही लेगा। कमाना वमाना क्या था। अबदुलग़फ़्फ़ार जिस को अब कबूतरों वाला साईं कहते थे, गांव में फरफरा कर आटा चावल इकट्ठा करलिया करता था, वो कभी इस लिए कि उस की माँ ने उस के गले में एक झोली लटका दी थी, जिस में लोग कुछ न कुछ डाल दिया करते थे। कबूतरों वाला साईं उसे इस लिए कहा जाता था कि उसे कबूतरों से बहुत प्यार था। तकीए में जितने कबूतर थे उन की देख भाल अब्बू पहलवान से ज़्यादा यही किया करता था।

उस वक़्त वो सामने कोठड़ी में एक टूटी हुई खाट पर अपने बाप का मेला कुचैला लिहाफ़ ओढ़े सो रहा था। बाहर उस की माँ आग सुलगा रही थी....

चूँकि सर्दियां अपने जोबन पर थीं इस लिए गांव अभी तक रात और सुबह के धोईं में लिपटा हुआ था। यूं तो गांव में सब लोग बेदार थे और अपने काम धंदों में मसरूफ़ थे मगर तकिया जो कि गांव से फ़ासिला पर था अभी तक आबाद न हुआ था, अलबत्ता दूर कोने में माई जीवां की बकरी ज़ोर ज़ोर से मिमया रही थी।

माई जीवां आग सुलगा कर बकरी के लिए चारा तैय्यार करने ही लगी थी कि उसे अपने पीछे आहट सुनाई दी। मुड़ कर देखा तो उसे एक अजनबी सर पर ठाटा और मोटा सा कम्बल ओढ़े नज़र आया। पगड़ी के एक पल्लू से उस आदमी ने अपना चेहरा आँखों तक छिपा रखा था। जब उस ने मोटी आवाज़ में “माई जीवां अस्सलामु अलैकुम” कहा तो पगड़ी का खुर्दरा कपड़ा इस के मुँह पर तीन चार मर्तबा सिकुड़ा और फैला।

माई जीवां ने चारा बकरी के आगे रख दिया और अजनबी को पहचानने की कोशिश किए बग़ैर कहा “वाअलैकुम अस्सलाम। आओ भाई बैठो। आग तापो।”

माई जीवां कमर पर हाथ रख कर उस गढ़े की तरफ़ बढ़ी जहां हर रोज़ आग सुलगती रहती थी। अजनबी और वो दोनों पास पास बैठ गए। थोड़ी देर हाथ ताप कर उस आदमी ने माई जीवां से कहा। “माँ। अल्लाह बख़्शे गामां साईं मुझे बाप की तरह चाहता था। उस के मरने की ख़बर मिली तो मुझे बहुत सदमा हुआ। मुझे आसीब होगया था, क़ब्रिस्तान का जिन्न ऐसा चिमटा था कि अल्लाह की पनाह, गामा साईं के एक ही तावीज़ से ये काली बला दूर होगई।”

माई जीवां ख़ामोशी से अजनबी की बातें सुनती रही जो कि उस के शौहर का बहुत ही मोतक़िद नज़र आता था। उस ने इधर उधर की और बहुत सी बातें करने के बाद बुढ़िया से कहा। “मैं बारह कोस से चल कर आया हूँ, एक ख़ास बात कहने के लिए।” अजनबी ने राज़दारी के अंदाज़ में अपने चारों तरफ़ देखा कि उस की बात कोई और तो नहीं सुन रहा और भिंचे हुए लहजा में कहने लगा। “मैं सुनदर डाकू के गिरोह का आदमी हूँ। परसों रात हम लोग इस गांव पर डाका मारने वाले हैं। ख़ूनख़राबा ज़रूर होगा, इस लिए मैं तुम से ये कहने आया हूँ कि अपने लड़कों को दूर ही रखना। मैंने सुना है कि गामा साईं मरहूम ने अपने पीछे दो लड़के छोड़े हैं। जो इन आदमियों का लहू है बाबा, ऐसा न हो कि जोश मार उठे और लेने के देने पड़ जाएं। तुम उन को परसों गांव से कहीं बाहर भेज दो तो ठीक रहेगा। बस मुझे यही कहना था। मैंने अपना हक़ अदा कर दिया है। अस्सलामु अलैकुम।”

अजनबी अपने हाथों को आग के अलाव पर ज़ोर ज़ोर से मल कर उठा और जिस रास्ते से आया था इसी रास्ते से बाहर चला गया।

सुनदर जाट बहुत बड़ा डाकू था। उस की दहश्त इतनी थी कि माएं अपने बच्चों को उसी का नाम लेकर डराया करती थीं। बेशुमार गीत उसकी बहादुरी और बेबाकी के गांव की जवान लड़कीयों को याद थे। इस का नाम सुन कर बहुत सी कुंवारियों के दिल धड़कने लगते थे। सुनदर जाट को बहुत कम लोगों ने देखा था मगर जब चौपाल में लोग जमा होते थे तो हर शख़्स उस से अपनी अचानक मुलाक़ात के मन-घड़त क़िस्से सुनाने में एक ख़ास लज़्ज़त महसूस करता था। उस के क़द-ओ-क़ामत और डीलडौल के बारे में मुख़्तलिफ़ बयान थे। बाअज़ कहते थे कि वो बहुत क़दआवर जवान है, बड़ी बड़ी मूंछों वाला। इन मूंछों के बालों के मुतअल्लिक़ ये मशहूर था कि वो दो बड़े बड़े लेमूँ उन की मदद से उठा सकता है। बाअज़ लोगों का ये बयान था कि उस का क़द मामूली है मगर बदन इस क़दर गट्ठा हुआ है कि गेंडे का भी ना होगा। बहरहाल सब मुत्तफ़िक़ा तौर पर उसकी ताक़त और बेबाकी के मोअतरिफ़ थे।

जब माई जीवां ने ये सुना कि सुनदर जाट उनके गांव पर डाका डालने के लिए आ रहा है तो उसके आए औसान ख़ता होगए और वो उस अजनबी के सलाम का जवाब तक न दे सकी और न उस का शुक्रिया अदा कर सकी। माई जीवां को अच्छी तरह मालूम था कि सुनदर जाट का डाका क्या मानी रखता है। पिछली दफ़ा जब उस ने साथ वाले गांव पर हमला किया था तो सखी महाजन की सारी जमा पूंजी ग़ायब होगई थी और गांव की सब से सुनदर और चंचल छोकरी भी ऐसी गुम हुई थी कि अब तक उस का पता नहीं मिलता था। ये बला अब उन के गांव पर नाज़िल होने वाली थी और इस का इल्म सिवाए माई जीवां के गांव में किसी और को न था। माई जीवां ने सोचा कि वो इस आने वाले भूंचाल की ख़बर किस किस को दे........ चौधरी के घर ख़बर करदे........ लेकिन नहीं वो तो बड़े कमीने लोग थे। पिछले दिनों उस ने थोड़ा सा साग उन से मांगा था तो उन्हों ने इनकार कर दिया था। घसीटा राम हलवाई को मुतनब्बा करदे.... नहीं, वो भी ठीक आदमी नहीं था।

वो देर तक इन ही ख़यालात में ग़र्क़ रही। गांव के सारे आदमी वो एक एक करके अपने दिमाग़ में लाई और इन में से किसी एक को भी इस ने मेहरबानी के काबिल न समझा। इस के इलावा उस ने सोचा अगर उस ने किसी को हमदर्दी के तौर पर इस राज़ से आगाह कर दिया तो वो किसी और पर मेहरबानी करेगा और यूं सारे गांव वालों को पता चल जाएगा जिस का नतीजा अच्छा नहीं होगा। आख़िर में वो ये फ़ैसला करके उठी कि अपनी सारी जमा पूंजी निकाल कर वो सब्ज़ रंग की ग़लाफ़ चढ़ी क़ब्र के सिरहाने गाड़ देगी और रहमान को पास वाले गांव में भेज देगी।

जब वो सामने वाली कोठड़ी की तरफ़ बढ़ी तो दहलीज़ में उसे अबदुलग़फ़्फ़ार यानी कबूतरों वाला साईं खड़ा नज़र आया। माँ को देख कर वो हंसा। उस की ये हंसी आज खिलाफ-ए-मामूल मानी ख़ेज़ थी। माई जीवां को उस की आँखों में संजीदगी और मतानत की झलक भी नज़र आई जो कि होशमन्दी की निशानी है।

जब वो कोठड़ी के अंदर जाने लगी तो अबदुलग़फ़्फ़ार ने पूछा। “माँ, ये सुबह सवेरे कौन आदमी आया था?”

अबदुलग़फ़्फ़ार इस क़िस्म के सवाल आम तौर पर पूछा करता था, इस लिए उस की माँ जवाब दिए बग़ैर अन्दर चली गई और अपने छोटे लड़के को जगाने लगी। “ए रहमान, ए रहमान उठ उठ।”

बाज़ू झिंझोड़ कर माई जीवां ने अपने छोटे लड़के रहमान को जगाया और वो जब आँखें मिल कर उठ बैठा और अच्छी तरह होश आगया तो उस की माँ ने उस को सारी बात सुना दी। रहमान के तो औसान ख़ता होगए। वो बहुत डरपोक था गो उस की उम्र उस वक़्त बाईस बरस की थी और काफ़ी ताक़तवर जवान था मगर इस में हिम्मत और शुजाअत नाम तक को न थी। सुनदर जाट!.... इतना बड़ा डाकू, जिस के मुतअल्लिक़ मशहूर था कि वो थोक फेंकता था तो पूरे बीस गज़ के फ़ासले पर जा कर गिरता था, परसों डाका डालने और लूट मार करने के लिए आरहा था। वो फ़ौरन अपनी माँ के मश्वरे पर राज़ी होगया बल्कि यूं कहीए कि वो उसी वक़्त गांव छोड़ने की तैय्यारियां करने लगा।

रहमान को नीयती चमारन यानी इनायत से मुहब्बत थी जो कि गांव की एक बेबाक शोख़ और चंचल लड़की थी। गांव के सब जवान लड़के शबाब की ये पोटली हासिल करने की कोशिश में लगे रहते थे मगर वो किसी को ख़ातिर में नहीं लाती थी। बड़े बड़े होशियार लड़कों को वो बातों बातों में उड़ा देती थी। चौधरी दीन मुहम्मद के लड़के फ़ज़लदीन को कलाई पकड़ने में कमाल हासिल था। इस फ़न के बड़े बड़े माहिर दूर दूर से उस को नीचा दिखाने के लिए आते थे मगर उस की कलाई किसी से भी न मुड़ी थी। वो गांव में अकड़ अकड़ कर चलता था मगर उस की ये सारी अकड़ फ़ूं नीयती ने एक ही दिन में ग़ायब कर दी जब उस ने धान के खेत में उस से कहा। “फ़जे, गंडा सिंह की कलाई मरोड़ कर तो अपने मन में ये मत समझ कि बस अब तेरे मुक़ाबला में कोई आदमी नहीं रहा.... आ मेरे सामने बैठ, मेरी कलाई पकड़, इन दो उंगलियों की एक ही ठुमकी से तेरे दोनों हाथ न छुड़ा दूँ तो नीयती नाम नहीं।”

फ़ज़लदीन उस को मोहब्बत की निगाहों से देखता था और उसे यक़ीन था कि उसकी ताक़त और शहज़ोरी के रुअब और दबदबे में आकर वो ख़ुदबख़ुद एक रोज़ राम हो जाएगी। लेकिन जब उस ने कई आदमियों के सामने उस को मुक़ाबले की दावत दी तो वो पसीना पसीना होगया। अगर वो इनकार करता है तो नीयती और भी सर पर चढ़ जाती है और अगर वो उसकी दावत क़बूल करता है तो लोग यही कहेंगे। औरत ज़ात से मुक़ाबला करते शर्म तो नहीं आई मर्दूद को। उस की समझ में नहीं आता था कि क्या करे। चुनांचे उस ने नीयती की दावत क़बूल करली थी। और जैसा कि लोगों का बयान है उस ने जब नीयती की गदराई हुई कलाई अपने हाथों में ली तो वो सारे का सारा काँप रहा था। नीयती की मोटी मोटी आँखें उस की आँखों में धँस गईं, एक नारा बुलंद हुआ और नीयती की कलाई फ़ज़ल की गिरिफ़त से आज़ाद होगई........ उस दिन से लेकर अब तक फ़ज़ल ने फिर कभी किसी की कलाई नहीं पकड़ी।

हाँ, तो इस नीयती से रहमान को मुहब्बत थी, जैसा कि वो आप डरपोक था इसी तरह उस का प्रेम भी डरपोक था। दूर से देख कर वह अपने दिल की हवस पूरी करता था और जब कभी उस के पास होती तो उस को इतनी जुर्रत नहीं होती थी कि हर्फ़-ए-मुद्दा ज़बान पर लाए। मगर नीयती सब कुछ जानती थी। वो क्या कुछ नहीं जानती थी। उसे अच्छी तरह मालूम था कि ये छोकरा जो दरख़्तों के तनों के साथ पीठ टीके खड़ा रहता है उस के इश्क़ में गिरफ़्तार है, उस के इश्क़ में कौन गिरफ़्तार नहीं था? सब उस से मोहब्बत करते थे। इस किस्म की मोहब्बत जो कि बेरियों के बेर पकने पर गांव के जवान लड़के अपनी रगों के तनाव के अंदर महसूस किया करते हैं मगर वो अभी तक किसी की मोहब्बत में गिरफ़्तार नहीं हुई थी। मोहब्बत करने की ख़्वाहिश अलबत्ता उसके दिल में इस क़दर मौजूद थी कि बिलकुल उस शराबी के मानिंद मालूम होती थी जिस के मुतअल्लिक़ डर रहा करता है कि अब गृह और अब गृह........ वो बेख़बरी के आलम में एक बहुत ऊंची चट्टान की चोटी पर पहुंच चुकी थी और अब तमाम गांव वाले उस की उफ़्ताद के मुंतज़िर थे जो कि यक़ीनी थी........।

रहमान को भी इस उफ़ताद का यक़ीन था मगर उस का डरपोक दिल हमेशा उसे ढारस दिया करता था कि नहीं, नीयती आख़िर तेरी ही बांदी बनेगी और वो यूं ख़ुश होजाया करता था।

जब रहमान दस कोस तय करके दूसरे गांव में पहुंचने के लिए तैय्यार हो कर तकीए से बाहर निकला तो उसे रास्ते में नीयती का ख़याल आया मगर उस वक़्त उस ने ये न सोचा कि सुनदर जाट धावा बोलने वाला है। वो दरअसल नीयती के तसव्वुर में इस क़दर मगन था और अकेले में उस के साथ मन ही मन में इतने ज़ोरों से प्यार मोहब्बत कर रहा था कि उसे किसी और बात का ख़याल ही न आया। अलबत्ता जब वो गांव से पाँच कोस आगे निकल गया तो इका ईकी उस ने सोचा कि नीयती को तो बता देना चाहिए था कि सुंदर जाट आरहा है। लेकिन अब वापस कौन जाता।

अबदुलग़फ़्फ़ार यानी कबूतरों वाला साईं तकीए से बाहर निकला। उस के मुँह से लूआब निकल रहा था जो कि मैले कुरते पर गिर कर देर तक गलीसरीन की तरह चमकता रहता था। तकीए से निकल कर सीधा खेतों का रुख़ किया करता था और सारा दिन वहीं गुज़ार देता था। शाम को जब ढोर डंगर वापस गांव को आते तो उन के चलने से जो धूल उड़ती है इस के पीछे कभी कभी ग़फ़्फ़ार की शक्ल नज़र आजाती थी। गांव उस को पसंद नहीं था। उजाड़ और सुनसान जगहों से उसे ग़ैर महसूस तौर पर मोहब्बत थी यहां भी लोग उस का पीछा न छोड़ते थे और उस से तरह तरह के सवाल पूछते थे। जब बरसात में देर हो जाती तो क़रीब क़रीब सब किसान उस से दरख़ास्त करते थे कि वो पानी भरे बादलों के लिए दुआ मांगे और गांव के इश्क़ पेशा जवान उस से अपने दिल का हाल बयान करते और पूछते कि वो कब अपने मक़सद में कामयाब होंगे, नौजवान छोकरियां भी चुपके चुपके धड़कते हुए दिलों से उस के सामने अपनी मोहब्बत का एतराफ़ करती थीं और ये जानना चाहती थीं कि उन के माहिआ का दिल कैसा है।

अबदुलग़फ़्फ़ार इन सवालियों को ऊटपटांग जवाब दिया करता था इस लिए कि उसे ग़ैब की बातें कहाँ मालूम थीं, लेकिन लोग जो उस के पास सवाल लेकर आते थे उस की बेरब्त बातों में अपना मतलब ढूंढ लिया करते थे।

अबदुलग़फ़्फ़ार मुख़्तलिफ़ खेतों में से होता हुआ उस कुँवें के पास पहुंच गया जो कि एक ज़माने से बेकार पड़ा था। उस कुँवें की हालत बहुत अबतर थी। उस बूढ़े बरगद के पत्ते जो कि सालहा साल से उस के पहलू में खड़ा था इस क़दर उस में जमा होगए थे कि अब पानी नज़र ही न आता था और ऐसा मालूम होता कि बहुत सी मकड़ियों ने मिल कर पानी की सतह पर मोटा सा जाला बुन दिया है। उस कुँवें की टूटी हुई मुंडेर पर अब्दुल-ग़फ़्फ़ार बैठ गया और दूसरों की उदास फ़िज़ा में उस ने अपने वजूद से और भी उदासी पैदा करदी।

दफ़्फ़ातन उड़ती हुई चीलों की उदास चीख़ों को अक़ब में छोड़ती हुई एक बुलंद आवाज़ उठी और बूढ़े बरगद की शाख़ों में एक कपकपाहट सी दौड़ गई।

नीयती गा रही थी

माही मिरे ने बाग लवाया

चंपा, मेवा ख़ूब खिलाया

असी तय लोअयां खट्टीयाँ वे

रातें सून ना देंदियां अखयां वे

इस गीत का मतलब ये था कि मेरे माहिआ यानी मेरे चाहने वाले ने एक बाग़ लगाया है, इस में हर तरह के फूल उगाए हैं, चंपा, मेवा वग़ैरा खिलाए हैं। और हम ने तो सिर्फ़ नारंगियां लगाई हैं.... रात को आँखें सोने नहीं देतीं। कितनी इनकिसारी बरती गई है। माशूक़ आशिक़ के लगाए हुए बाग़ की तारीफ़ करता है, लेकिन वो अपनी जवानी के बाग़ की तरफ़ निहायत इन्किसाराना तौर पर इशारा करता है जिस में हक़ीर नारंगियां लगी हैं और फिर शब जवाबी का गिला किस ख़ूबी से किया गया है।

गो अबदुलग़फ़्फ़ार में नाज़ुक जज़्बात बिलकुल नहीं थे फिर भी नीयती की जवान आवाज़ ने उस को चौंका दिया और वो इधर उधर देखने लगा। उस ने पहचान लिया था कि ये आवाज़ नीयती की है।

गाती गाती नीयती कुँवें की तरफ़ आ निकली। ग़फ़्फ़ार को देख कर वह दौड़ी हुई उस के पास आई और कहने लगी। “ओह, ग़फ़्फ़ार साईं.... तुम.... ओह, मुझे तुम से कितनी बातें पूछना हैं.... और इस वक़्त यहां तुम्हारे और मेरे सिवा और कोई भी नहीं.... देखो मैं तुम्हारा मुँह मीठा कराऊंगी अगर तुम ने मेरे दिल की बात बूझ ली और.... लेकिन तुम तो सब कुछ जानते हो अल्लाह वालों से किसी के दिल का हाल छुपा थोड़ी रहता है।”

वो उस के पास ज़मीन पर बैठ गई और उस के मैले कुरते पर हाथ फेरने लगी।

खिलाफ-ए-मामूल कबूतरों वाला साईं मुस्कुराया मगर नीयती उस की तरफ़ देख नहीं रही थी, उस की निगाहें गाड़हे के ताने बाने पर बग़ैर किसी मतलब के तेर रही थीं। खुरदरे कपड़े पर हाथ फेरते फेरते उस ने गर्दन उठाई और आहों में कहना शुरू किया। “ग़फ़्फ़ार साईं तुम अल्लाह मियां से मोहब्बत करते हो और मैं.... मैं एक आदमी से मोहब्बत करती हूँ। तुम मेरे दिल का हाल क्या समझोगे!.... अल्लाह मियां की मोहब्बत और उस के बंदे की मोहब्बत एक जैसी तो हो नहीं सकती.... क्यों ग़फ़्फ़ार साईं.... अरे तुम बोलते क्यों नहीं.... कुछ बोलो.... कुछ कहो.... अच्छा तो मैं ही बोले जाऊंगी........ तुम नहीं जानते कि आज मैं कितनी देर बोल सकती हूँ.... तुम सुनते सुनते थक जाओगे पर मैं नहीं थकूंगी.... ” ये कहते कहते वो ख़ामोश होगई और उस की संजीदगी ज़्यादा बढ़ गई। अपने मन में ग़ोता लगाने के बाद जब वो उभरी तो उस ने इका ईकी अबदुलग़फ़्फ़ार से पूछा। “साईं। मैं कब थकूं गी?”

अबदुलग़फ़्फ़ार के मुँह से लूआब निकलना बंद होगया। उस ने कुँवें के अंदर झुक कर देखते हुए जवाब दिया। “बहुत जल्द।”

ये कह कर वो उठ खड़ा हुआ। इस पर नीयती ने उस के कुरत का दामन पकड़ लिया और घबरा कर पूछा। “कब?.... कब?.... साईं कब?”

अबदुलग़फ़्फ़ार ने इस का कोई जवाब न दिया और बबूल के झुनड की तरफ़ बढ़ना शुरू कर दिया। नीयती कुछ देर कुँवें के पास सोचती रही फिर तेज़ क़दमों से जिधर साईं गया था उधर चल दी।

वो रात जिस में सुनदर जाट गांव पर डाका डालने के लिए आरहा था। माई जीवां ने आँखों में काटी। सारी रात वो अपनी खाट पर लिहाफ़ ओढ़े जागती रही। वो बिलकुल अकेली थी। रहमान को उस ने दूसरे गांव भेज दिया और अबदुलग़फ़्फ़ार न जाने कहाँ सौ गया था। अब्बू पहलवान कभी कभी तकीए में आग तापता तापता वहीं अलाव के पास सौ जाया करता था मगर वो सुबह ही से दिखाई नहीं दिया था, चुनांचे कबूतरों को दाना माई जीवां ही ने खिलाया था।

तकिया गांव के उस सिरे पर वाक़्य था जहां से लोग गांव के अंदर दाख़िल होते थे। माई जीवां सारी रात जागती रही मगर उस को हल्की सी आहट भी सुनाई न दी। जब रात गुज़र गई और गांव के मुर्गों ने अजानें देना शुरू करदीं तो वो सुनदर जाट की बाबत सोचती सोचती सौ गई।

चूँकि रात को वो बिलकुल न सोई थी इस लिए सुबह बहुत देर के बाद जागी। कोठड़ी से निकल कर जब वो बाहर आई तो उस ने देखा कि अब्बू पहलवान कबूतरों को दाना दे रहा है और धूप सारे तकीए में फैली हुई है। उस ने बाहर निकलते ही उस से कहा। “सारी रात मुझे नींद नहीं आई। ये मोह बुढ़ापा बड़ा तंग कर रहा है। सुबह सोई हूँ और अब उठी हूँ.... हाँ तुम सुनाओ कल कहाँ रहे हो?”

अब्बू ने जवाब दिया। “गांव में।”

इस पर माई जीवां ने कहा। “कोई ताज़ा ख़बर सुनाओ।”

अब्बू ने झोली के सब दाने ज़मीन पर गिरा कर और झपट कर एक कबूतर को बड़ी सफ़ाई से अपने हाथ में दबोचते हुए कहा। “आज सुबह चौपाल पर नत्था सिंह कह रहा था कि गाम चमार की वो लौंडिया.... क्या नाम है उस का?.... हाँ वो नीयती कहीं भाग गई है?.... मैं तो कहता हूँ अच्छा हुआ.... हराम ज़ादी ने सारा गांव सर पर उठा रखा था।”

“किसी के साथ भाग गई है या कोई उठा कर ले गया है?”

“जाने मेरी बला.... लेकिन मेरे ख़याल में तो वो ख़ुद ही किसी के साथ भाग गई है।”

“माई जीवां को इस गुफ़्तुगू से इत्मिनान न हुआ। सुनदर जाट ने डाका नहीं डाला था पर एक छोकरी तो ग़ायब होगई थी। अब वो चाहती थी कि किसी न किसी तरह नीयती का ग़ायब हो जाना सुनदर जाट से मुतअल्लिक़ हो जाये। चुनांचे वो इन तमाम लोगों से नीयती के बारे में पूछती रही जो कि तकीए में आते जाते रहे लेकिन जो कुछ अब्बू ने बताया था उस से ज़्यादा उसे कोई भी न बता सका।”

शाम को रहमान लोट आया। उस ने आते ही माँ से सुनदर जाट के डाका के मुतअल्लिक़ पूछा। इस पर माई जीवां ने कहा। “सुंदर जाट तो नहीं आया बेटा पर नीयती कहीं ग़ायब होगई है........ ऐसी कि कुछ पता ही नहीं चलता।”

रहमान को ऐसा महसूस हुआ कि उस की टांगों में दस कोस और चलने की थकावट पैदा होगई है। वो अपनी माँ के पास बैठ गया, उस का चेहरा ख़ौफ़नाक तौर पर ज़र्द था।

एक दम ये तबदीली देख कर माई जीवां ने तशवीशनाक लहजा में इस से पूछा। “क्या हुआ बेटा।”

रहमान ने अपने ख़ुश्क होंटों पर ज़बान फेरी और कहा। “कुछ नहीं माँ.... थक गया हूँ।”

और नीयती कल मुझ से पूछती थी, “मैं कब थकूंगी?”

रहमान ने पलट कर देखा तो उस का भाई अबदुलग़फ़्फ़ार आसतीन से अपने मुँह का लुआब पोंछ रहा था। रहमान ने उस की तरफ़ घूर कर देखा और पूछा “क्या कहा था उस ने तुझ से?”

अबदुलग़फ़्फ़ार अलाव के पास बैठ गया। “कहती थी कि मैं थकती ही नहीं.... पर अब वो थक जाएगी।”

रहमान ने तेज़ी से पूछा। “कैसे?”

ग़फ़्फ़ार साईं के चेहरे पर एक बेमानी सी मुस्कुराहट पैदा हुई। “मुझे क्या मालूम?.... सुनदर जाट जाने और वो जाने।”

ये सुन कर रहमान के चेहरे पर और ज़्यादा ज़रदी छा गई और माई जीवां की झुरयां ज़्यादा गहराई इख़्तियार कर गईं 

औरत ज़ात सआदत हसन मन्टो saadat hasan manto

महाराजा ग से रेस कोर्स पर अशोक की मुलाक़ात हुई। इस के बाद दोनों बेतकल्लुफ़ दोस्त बन गए।

महाराजा ग को रेस के घोड़े पालने का शौक़ ही नहीं ख़बत था। उस के अस्तबल में अच्छी से अच्छी नसल का घोड़ा मौजूदत था। और महल में जिस के गुन्बद रेस कोर्स से साफ़ दिखाई देते थे। तरह तरह के अजाइब मौजूद थे।

अशोक जब पहली बार महल में गया तो महाराजा ग ने कई घंटे सर्फ़ करके उसको अपने तमाम नवादिर दिखाए। ये चीज़ें जमा करने में महाराजा को सारी दुनिया का दौरा करना पड़ा था। हर मुल्क का कोना कोना छानना पड़ा था। अशोक बहुत मुतअस्सिर हुआ। चुनांचे उस ने नौजवान महाराजा ग के ज़ौक़-ए-इंतिख़ाब की ख़ूब दाद दी।

एक दिन अशोक घोड़ों के टप लेने के लिए महाराजा के पास गया। तो वो डार्क रुम में फ़िल्म देख रहा था। उस ने अशोक को वहीं बुलवा लिया। सकीटन मिलीमीटर फ़िल्म थे जहाँ महाराजा ने ख़ुद अपने कैमरे से लिए थे। जब प्रोजैक्टर चला तो पिछली रेस पूरी की पूरी पर्दे से दौड़ गई। महाराजा का घोड़ा इस रेस में वन आया था।

इस फ़िल्म के बाद महाराजा ने अशोक की फ़र्माइश पर और कई फ़िल्म दिखाए। स्विटज़रलैंड, पैरिस, न्यूयार्क, हूनू लूलू, हवाई, वादी-ए-कश्मीर........ अशोक बहुत महज़ूज़ हुआ ये फ़िल्म क़ुदरती रंगों में थे।

अशोक के पास भी सकीटन मिलीमीटर कैमरा और प्रोजैक्टर था। मगर उस के पास फिल्मों का इतना ज़ख़ीरा नहीं था। दरअसल उस को इतनी फ़ुर्सत ही नहीं मिलती थी कि अपना ये शौक़ जी भर के पूरा करसके।

महाराजा जब कुछ फ़िल्म दिखा चुका तो उस ने कैमरे में रोशनी की और बड़ी बेतकल्लुफ़ी से अशोक की रान पर धप्पा मार कर कहा। “और सुनाओ दोस्त।”

अशोक ने सिगरेट सुलगाया “मज़ा आगया फ़िल्म देख कर”

“और दिखाऊँ”

“नहीं नहीं”

“नहीं भई एक ज़रूर देखो........ मज़ा आजाएगा तुम्हें” ये कह कर महाराजा ग ने एक सन्दूकचा खोल कर एक रील निकाली और प्रोजैक्टर पर चड़ा दी “ज़रा इत्मिनान से देखना”

अशोक ने पूछा “क्या मतलब?”

महाराजा ने कमरे की लाईट औफ़ कर दी “मतलब ये कि हर चीज़ ग़ौर से देखना ये कह कर उस ने प्रोजैक्टर का सोइच दबा दिया।”

पर्दे पर चंद लमहात सिर्फ़ सफ़ैद रोशनी थरथराती रही, फिर एक दम तस्वीरें शुरू होगईं। एक अलिफ़ नंगी औरत सोफे पर लेटी थी। दूसरी सिंगार मेज़ के पास खड़ी अपने बाल संवार रही थी।

अशोक कुछ देर ख़ामोश बैठा देखता रहा........ इस के बाद एक दम उसके हलक़ से अजीब-ओ-ग़रीब आवाज़ निकली। महाराजा ने हंस कर उस से पूछा “क्या हुआ?”

अशोक के हलक़ से आवाज़ फंस फंस कर बाहर निकली “बंद करो यार बंद करो।”

“क्या बंद करो?”

अशोक उठने लगा महाराजा ग ने उसे पकड़ कर बिठा दिया “ये फ़िल्म तुम्हें पूरे का पूरा देखना पड़ेगा।”

फ़िल्म चलता रहा। पर्दे पर ब्रहंगी मुँह खोले नाचती रही। मर्द और औरत का जिन्सी रिश्ता मादरज़ाद उर्यानी के साथ थिरकता रहा। अशोक ने सारा वक़्त बेचैनी में काटा। जब फ़िल्म बंद हुआ और पर्दे पर सिर्फ़ सफ़ैद रोशनी थी तो अशोक को ऐसा महसूस हुआ कि जो कुछ उस ने देखा था। प्रोजैक्टर की बजाय उसकी आँखें फेंक रही हैं।

महाराजा ग ने कमरे की लाईट ऑन की और अशोक की तरफ़ देखा और एक ज़ोर का क़हक़हा लगाया। “क्या होगया है तुम्हें?”

अशोक कुछ सिकुड़ सा गया था। एक दम रोशनी के बाइस उसकी आँखें भींची हुई थीं। माथे पर पसीने के मोटे मोटे क़तरे थे। महाराजा ग ने ज़ोर से उस की रान पर धप्पा मारा। और इस क़दर बेतहाशा हंसा कि उसकी आँखों में आँसू आगए। अशोक सोफे पर से उठा। रूमाल निकाल कर अपने माथे का पसीना पोंछा। “कुछ नहीं यार।”

“कुछ नहीं क्या........ मज़ा नहीं आया”

अशोक का हलक़ सूखा हुआ था। थूक निगल कर उस ने कहा। “कहाँ से लाए ये फ़िल्म?”

महाराजा ने सोफे पर लेटते हुए जवाब दिया “पैरिस से ........ पेरी........ पेरी!”

अशोक ने सर को झटका सा दिया। “कुछ समझ में नहीं आता”

“क्या?”

“ये लोग........ मेरा मतलब है कैमरे के सामने ये लोग कैसे........ ”

“यही तो कमाल है........ है कि नहीं?”

“है तो सही।” ये कह कर अशोक ने रूमाल से अपनी आँखें साफ़ कीं। “सारी तस्वीरें जैसे मेरी आँखों में फंस गई हैं।”

महाराजा ग उठा। “मैंने एक दफ़ा चंड लेडीज़ को ये फ़िल्म दिखाया”

अशोक चिल्लाया। “लेडीज़ को?”

“हाँ हाँ........ बड़े मज़े ले ले कर देखा उन्हों ने”

“ग़लत”

महाराजा ने बड़ी संजीदगी के साथ कहा। “सच्च कहता हूँ........ एक दफ़ा देख कर दूसरी दफ़ा फिर देखा। भींचती, चिल्लाती और हंसती रहीं।”

अशोक ने अपने सर को झटका सा दिया “हद होगई है........ मैं तो समझता था वो.... बेहोश होगई होंगी।”

“मेरा भी यही ख़्याल था, लेकिन उन्हों ने ख़ूब लुत्फ़ उठाया।”

अशोक ने पूछा “क्या यूरोपीयन थीं?”

महाराजा ग ने कहा। “नहीं भाई........ अपने देस की थीं........ मुझ से कई बार ये फ़िल्म और प्रोजैक्टर मांग कर ले गईं........ मालूम नहीं कितनी सहेलीयों को दिखा चुकी हैं........ ”

“मैंने कहा........ ” अशोक कुछ कहते कहते रुक गया

“क्या?”

“एक दो रोज़ के लिए ये फ़िल्म दे सकते हो मुझे?”

“हाँ हाँ ले जाओ!” ये कह कर महाराजा ने अशोक की पसलीयों में ठोंका दिया। “साले किस को दिखाएगा।”

“दोस्तों को”

“दिखा जिस को भी तेरी मर्ज़ी!” ये कह कर महाराजा ग ने प्रोजैक्टर में से फ़िल्म का असपोल निकाला। उस को दूसरे असपोल चढ़ा दिया और डिब्बा अशोक के हवाले कर दिया। “ले पकड़........ऐश कर!”

अशोक ने डिब्बा हाथ में ले लिया तो उस के बदन में झुरझरी सी दौड़ गई। घोड़ों के टप लेना भूल गया और चंद मिनट इधर उधर की बातें करने के बाद चला गया।

घर से प्रोजैक्टर ले जा कर उस ने कई दोस्तों कोय फ़िल्म दिखाया। तक़रीबन सब के लिए इंसानियत की ये उर्यानी बिलकुल नई चीज़ थी। अशोक ने हर एक का रद्द-ए-अमल नोट किया। बाअज़ ने ख़फ़ीफ़ सी घबराहट और फ़िल्म का एक एक इंच ग़ौर से देखा। बाअज़ ने थोड़ा सा देख कर आँखें बंद करलीं। बाअज़ आँखें खुली रखने के बावजूद फ़िल्म को तमाम-ओ-कमाल तौर पर न देख सके। एक बर्दाश्त न कर सका और उठ कर चला गया।

तीन चार रोज़ के बाद अशोक को फ़िल्म लौटाने का ख़्याल आया तो उस ने सोचा क्यों ना अपनी बीवी को दिखाऊँ चुनांचे वो प्रोजैक्टर अपने घर ले गया। रात हुई तो उस ने अपनी बीवी को बुलाया। दरवाज़े बंद किए। प्रोजैक्टर का कनैक्शन वग़ैरा ठीक किया। फ़िल्म निकाला। उस को फुट किया। कमरे की बत्ती बुझाई और फ़िल्म चला दिया।

पर्दे पर चंद लमहात सफ़ैद रोशनी थरथराई। फिर तस्वीरें शुरू हुई। अशोक की बीवी ज़ोर से चीख़ी। तड़पी। उछली। उसके मुँह से अजीब-ओ-ग़रीब आवाज़ निकलीं। अशोक ने उसे पकड़ कर बिठाना चाहा तो इस ने आँखों पर हाथ रख लिए और चीख़ना शुरू कर दिया। “बंद करो........ बंद करो”

अशोक ने हंस कर कहा “अरे भई देख लो........ शरमाती क्यों हो”

“नहीं नहीं” ये कह कर उस ने हाथ छुड़ा कर भागना चाहा

अशोक ने उसको ज़ोर से पकड़ लिया वो हाथ जो उसकी आँखों पर था। एक तरफ़ खींचा। इस खींचातानी में दफ़अतन अशोक की बीवी ने रोना शुरू कर दिया। अशोक के ब्रेक से लग गई। उस ने तो महज़ तफ़रीह की ख़ातिर अपनी बीवी को फ़िल्म दिखाया था।

रोती और बड़बड़ाती उसकी बीवी दरवाज़ा खोल कर बाहर निकल गई। अशोक चंद लमहात बिलकुल ख़ालीउज़्ज़हन बैठा नंगी तस्वीरें देखता रहा। जो हैवानी हरकात में मशग़ूल थीं, फिर एक दम इस ने मुआमला की नज़ाकत को महसूस किया। इस एहसास ने उसे ख़जालत के समुंद्र में ग़र्क़ कर दिया........ उस ने सोचा मुझ से बहुत ही नाज़ेबा हरकत सरज़द हुई। लेकिन हैरत है कि मुझे इस का ख़्याल तक न आया........ दोस्तों को दिखाया था। ठीक था। घर में और किसी को नहीं, अपनी बीवी........ अपनी बीवी को........ इस के माथे पर पसीना आगया।

फ़िल्म चल रहा था। मादर ज़ाद ब्रहंगी मुख़्तलिफ़ आसन इख़्तियार करती दौड़ रही थी। अशोक ने उठ कर सोइच औफ़ कर दिया........ पर्दे पर सब कुछ बुझ गया। मगर उस ने अपनी निगाहें दूसरी तरफ़ फेर लीं। उस का दिल-ओ-दिमाग़ शर्मसारी में डूबा हुआ था। ये एहसास उस को चुभ रहा था कि उस से एक निहायत ही नाज़ेबा........ निहायत ही वाहीयात हरकत सरज़द हुई। उस ने यहां तक सोचा कि वो कैसे अपनी बीवी से आँख मिला सकेगा।

कमरे में घुप अंधेरा था। एक सिगरेट सुलगा कर उस ने एहसास-ए-नदामत को मुख़्तलिफ़ ख़्यालों के ज़रीया से दूर करने की कोशिश की। मगर कामयाब न हुआ। थोड़ी देर दिमाग़ में इधर उधर हाथ मारता रहा। जब चारों तरफ़ से सरज़निश हुई तो ज़च बच होगया। और एक अजीब सी ख़्वाहिश उसके दिल में पैदा हुई कि जिस तरह कमरे में अंधेरा है इसी तरह उसके दिमाग़ पर भी अंधेरा छा जाये।

बार बार उसे ये चीज़ सता रही थी। “ऐसी वाहीयात हरकत और मुझे ख़्याल तक न आया।”

फिर वो सोचता बात अगर सास तक पहुंच गई........ सालियों को पता चल गया। मेरे मुतअल्लिक़ क्या राय क़ायम करेंगे ये लोग कि ऐसे गिरे हुए अख़लाक़ का आदमी निकला........ ऐसी गंदी ज़हनीयत कि अपनी बीवी को........

तंग आकर अशोक ने सिगरेट सुलगाया। वो नंगी तस्वीरें जो वो कई बार देख चुका था उसकी आँखों के सामने नाचने लगीं........ उन के अक़ब में उसे अपनी बीवी का चेहरा नज़र आता। हैरान-ओ-परेशान, जिस ने ज़िंदगी में पहली बार उफ़ूनत का इतना बड़ा ढेर देखा हो। सर झटक कर अशोक उठा और कमरे में टहलने लगा। मगर इस से भी उस का इज़्तिराब दूर न हुआ।

थोड़ी देर के बाद वो दबे पांव कमरे से बाहर निकला। साथ वाले कमरे में झांक कर देखा। उसकी बीवी मुँह सर लपेट कर लेटी हुई थी। काफ़ी देर खड़ा सोचता रहा। कि अंदर जा कर मुनासिब-ओ-मौज़ूं अल्फ़ाज़ में इस से माफ़ी मांगे। मगर ख़ुद में इतनी जुर्रत पैदा न कर सका। दबे पांव लौटा और अंधेरे कमरे में सोफे पर लेट गया। देर तक जागता रहा, आख़िर सो गया।

सुबह सवेरे उठा। रात का वाक़्य इस के ज़हन में ताज़ा होगया। अशोक ने बीवी से मिलना मुनासिब न समझा और नाश्ता किए बग़ैर निकल गया।

ऑफ़िस में उस ने दिल लगा कर कोई काम न किया। ये एहसास उस के दिल-ओ-दिमाग़ के साथ चिपक कर रह गया था। “ऐसी वाहीयात हरकत और मुझे ख़्याल तक न आया।”

कई बार उस ने घर बीवी को टेलीफ़ोन करने का इरादा किया मगर हर बार नंबर के आधे हिन्दसे घुमा कर रीसीवर रख दिया। दोपहर को घर से जब उस का खाना आया। तो उस ने नौकर से पूछा “मेमसाहब ने खाना ख़ालिया?”

नौकर ने जवाब दिया। “जी नहीं........ वो कहीं बाहर गए हैं।”

“कहाँ?”

“मालूम नहीं साहब!”

“कब गए थे?”

“ग्यारह बजे”

अशोक का दिल धड़कने लगा। भूक ग़ायब होगई। दो चार नवाले खाए और हाथ उठा लिया। उसके दिमाग़ में हलचल मच गई थी। तरह तरह के ख़्यालात पैदा हो रहे थे........। ग्यारह बजे........ अभी तक लौटी नहीं........ गई कहाँ है........ माँ के पास? क्या वो उसे सब कुछ बता देगी?........ ज़रूर बताएगी। माँ से बेटी सब कुछ कह सकती है........ हो सकता है बहनों के पास गई हो........ सुनेंगी तो क्या कहेंगी?........ दोनों मेरी कितनी इज़्ज़त करती थीं। जाने बात कहाँ से कहाँ पहुंचेगी........ ऐसी वाहीयात हरकत और मुझे ख़्याल तक न आया........

अशोक ऑफ़िस से बाहर निकल गया। मोटर ली और इधर उधर आवारा चक्कर लगाता रहा। जब कुछ समझ में न आया तो इस ने मोटर का रुख़ घर की तरफ़ फेर दिया। “देखा जाएगा जो कुछ होगा।”

घर के पास पहुंचा तो इस का दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा। जब लिफ़्ट एक धचके के साथ ऊपर उठी तो उस का दिल उछल कर इस के मुँह में आगया।

लिफ़्ट तीसरी मंज़िल पर रुकी। कुछ देर सोच कर इस ने दरवाज़ा खोला। अपने फ़्लैट के पास पहुंचा तो उस के क़दम रुक गए। उस ने सोचा कि लोट जाये। मगर फ़्लैट का दरवाज़ा खुला और उस का नौकर बीड़ी पीने के लिए बाहर निकला। अशोक को देख कर उस ने बीड़ी हाथ में छुपाई और सलाम किया। अशोक को अंदर दाख़िल होना पड़ा।

नौकर पीछे पीछे आरहा था। अशोक ने पलट कर इस से पूछा। “मेमसाहब कहाँ हैं?”

नौकर ने जवाब दिया। “अंदर कमरे में?”

“और कौन है?”

“उन की बहनें साहब........ कोलाबे वाले साहब की मेमसाहब और वो पार्टी बाईआं!”

ये सुन कर अशोक बड़े कमरे की तरफ़ बढ़ा। दरवाज़ा बंद था। इस ने धक्का दिया। अंदर से अशोक की बीवी की पतली मगर तेज़ आवाज़ आई “कौन है?”

नौकर बोला “साहब”

अंदर कमरे में एक दम गड़बड़ शुरू होगई। चीख़ें बुलंद हुईं। दरवाज़ों की चटख़ीयाँ खुलने की आवाज़ें आएं। खट खट फट फट हुई। अशोक कोरी डोर से होता पिछले दरवाज़े से कमरे में दाख़िल हुआ तो उस ने देखा कि प्रोजैक्टर चल रहा और पर्दे पर दिन की रोशनी में धुँदली धुँदली इंसानी शक्लें एक नफ़रतअंगेज़ मकानिकी यक आहंगी के साथ हैवानी हरकात में मशग़ूल हैं।

अशोक बेतहाशा हँसने लगा।

4जून1950-ई-

एक्ट्रेस की आँख सआदत हसन मन्टो saadat hasan manto

“पापों की गठड़ी” की शूटिंग तमाम शब होती रही थी, रात के थके मांदे ऐक्टर लक्कड़ी के कमरे में जो कंपनी के विलेन ने अपने मेकअप्प के लिए खासतौर पर तैय्यार किराया था और जिस में फ़ुर्सत के वक़्त सब ऐक्टर और ऐक्ट्रसें सेठ की माली हालत पर तबसरा किया करते थे, सोफ़ों और कुर्सीयों पर ऊँघ रहे थे। इस चोबी कमरे के एक कोने में मैली सी तिपाई के ऊपर दस पंद्रह चाय की ख़ाली प्यालियां औंधी सीधी पड़ी थीं जो शायद रात को नींद का ग़लबा दूर करने के लिए इन एक्ट्रों ने पी थीं। इन प्यालों पर सैंकड़ों मक्खियां भिनभिना रही थीं। कमरे के बाहर उन की भिनभिनाहट सुन कर किसी नौवारिद को यही मालूम होता कि अन्दर बिजली का पंखा चल रहा है।

दराज़क़द विलन जो शक्ल-ओ-सूरत से लाहौर का कोचवान मालूम होता था, रेशमी सूट में मलबूस सोफे पर दराज़ था। आँखें खुली थीं और मुँह भी नीम वा था। मगर वो सौ रहा था। इसी तरह उस के पास ही आराम कुर्सी पर एक मूंछों वाला उधेड़ उम्र का ऐक्टर ऊँघ रहा था। खिड़की के पास डंडे से टेक लगाए एक और ऐक्टर सोने की कोशिश में मसरूफ़ था। कंपनी के मुकालमा नवेस यानी मुंशी साहब होंटों में बीड़ी दबाये और टांगें, मेकअप्प टेबल पर रखे, शायद वो गीत बनाने में मसरूफ़ थे जो उन्हें चार बजे सेठ साहब को दिखाना था। “ऊई, ऊई.... हाय.... हाय।”

दफ़अतन ये आवाज़ बाहर से इस चोबी कमरे में खिड़कियों के रास्ते अंदर दाख़िल हुई। विलेन साहब झट से उठ बैठे और अपनी आँखें मलने लगे। मूंछों वाले ऐक्टर के लंबे लंबे कान एक इर्तिआश के साथ इस निस्वानी आवाज़ को पहचानने के लिए तैय्यार हुए। मुंशी साहब ने मेकअप्प टेबल पर से अपनी टांगें उठालीं और विलेन साहब की तरफ़ सवालिया नज़रों से देखना शुरू कर दिया।

“ऊई, ऊई, ऊई........ हाय........ हाय।”

इस पर, विलेन, मुंशी और दूसरे ऐक्टर जो नीम ग़ुनूदगी की हालत में थे चौंक पड़े, सब ने काठ के इस बक्स नुमा कमरे से अपनी गर्दनें बाहर निकालीं।

“अरे, क्या है भई।”

“ख़ैर तो है!”

“क्या हुआ?”

“अमां, ये तो........ देवी हैं!”

“क्या बात है! देवी?”

जितने मुँह उतनी बातें........ खिड़की में से निकली हुई हर गर्दन बड़े इज़्तिराब के साथ मुतहर्रिक हुई और हर एक के मुँह से घबराहट में हमदर्दी और इस्तिफ़सार के मिले जुले जज़्बात का इज़हार हुआ।

“हाय, हाय, हाय ........ ऊई ........ ऊई!”

........ देवी, कंपनी की हर दिलअज़ीज़ हीरोइन के छोटे से मुँह से चीख़ें निकलीं और बाहों को इंतिहाई कुर्ब-ओ-इज़्तिराब के तहत ढीला छोड़कर उस ने अपने चप्पल पहने पांव को ज़ोर ज़ोर से स्टूडीयो की पथरीली ज़मीन पर मारते हुए चीख़ना चलाने शुरू कर दिया।

ठुमका ठुमका बूटा सा क़द, गोल गोल गदराया हुआ डील, खुलती हुई गंदुमी रंगत ख़ूब ख़ूब काली काली तीखी भंवें, खुली पेशानी पर गहिरा कुसूम का टीका........ बाल काले भौंरा से जो सीधी मांग निकाल कर पीछे जोड़े की सूरत में लपेट दे कर कंघी किए हुए थे, ऐसे मालूम होते थे, जैसे शहद की बहुत सी मक्खियां छत्ते पर बैठी हुई हैं।

किनारेदार सफ़ैद सूती साड़ी में लिपटी हुई, चोली गुजराती तराश की थी, बग़ैर आस्तीनों के, जिन में से जोबन फटा पड़ता था, साड़ी बंबई के तर्ज़ से बंधी थी। चारों तरफ़ मीठा मीठा झोल दिया हुआ था.... गोल गोल कलाईआं जिन में खुली खुली जापानी रेशमीन चूड़ियां खनकना रही थीं। इन रेशमीन चूड़ीयों में मिली हुई इधर उधर विलायती सोने की पतली पतली कन्गनियाँ झम झम कररही थीं, कान मौज़ूं और लवें बड़ी ख़ूबसूरत के साथ नीचे झुकी हुईं, जिन में हीरे के आवेज़े, शबनम की दो थर्राती हुई बूंदें मालूम होरही थीं।

चीख़ती चलाती, और ज़मीन को चप्पल पहने पैरों से कूटती, देवी ने दाहिनी आँख को नन्हे से सफ़ैद रूमाल के साथ मलना शुरू कर दिया।

“हाय मेरी आँख........ हाय मेरी आँख........ हाय!”

काठ के बक्स से बाहर निकली हुई कुछ गर्दनें अंदर को होगईं और जो बाहर थीं, फिर से हिलने लगीं।

“आँख में कुछ पड़ गया है?”

“यहां कंकर भी तो बेशुमार हैं........ हवा में उड़ते फिरते हैं।”

“यहां झाड़ू भी तो छः महीने के बाद दी जाती है।”

“अंदर आ जाओ, देवी।”

“हाँ, हाँ, आओ........ आँख को इस तरह न मलो।”

“अरे बाबा........ बोला न तकलीफ़ हो जाएगी.... तुम अंदर तो आओ।”

आँख मलती मलती, देवी कमरे के दरवाज़े की जानिब बढ़ी।

विलेन ने लपक कर तिपाई पर से बड़ी सफ़ाई के साथ एक रूमाल में चाय की प्यालियां समेट कर मेकअप्प टेबल के आईने के पीछे छुपा दीं और अपनी पुरानी पतलून से टेबल को झाड़पोंछ कर साफ़ कर दिया। बाक़ी एक्टरों ने कुर्सियां अपनी अपनी जगह पर जमा दें और बड़े सलीक़े से बैठ गए। मुंशी साहब ने पुरानी अधजली बीड़ी फेंक कर जेब से एक सिगरट निकाल कर सुलगाना शुरू कर दिया।

देवी अंदर आई। सोफे पर से मुंशी साहब और विलेन उठ खड़े हुए। मुंशी साहब ने बढ़ कर कहा। “आओ, देवी यहां बैठो।”

दरवाज़े के पास बड़ी बड़ी स्याह-ओ-सफ़ैद मूंछों वाले बुज़ुर्ग बैठे थे, उन की मूंछों के लटके और बढ़े हुए बाल थरथराए और उन्हों ने अपनी नशिस्त पेश करते हुए गुजराती लहजा में कहा। “इधर बेसू।”

देवी उन की थरथराती हुई मूंछों की तरफ़ ध्यान दिए बग़ैर आँख मलती और हाय हाय करती आगे बढ़ गई। एक नौजवान ने जो हीरो से मालूम होरहे थे और फंसी फंसी क़मीज़ पहने हुए थे, झट से एक चौकी नुमा कुर्सी सरका कर आगे बढ़ा दी और देवी ने इस पर बैठ कर अपनी नाक के बांसे को रूमाल से रगड़ना शुरू कर दिया।

सब के चेहरे पर देवी की तकलीफ़ के एहसास ने एक अजीब-ओ-ग़रीब रंग पैदा कर दिया था। मुंशी साहब की क़ुव्वत-ए-एहसास चूँकि दूसरे मर्दों से ज़्यादा थी, इस लिए चश्मा हटा कर उन्हों ने अपनी आँख मलना शुरू करदी थी।

जिस नौजवान ने कुर्सी पेश की थी, उस ने झुक कर देवी की आँख का मुलाहिज़ा किया और बड़े मुफ़क्किराना अंदाज़ में कहा। “आँख की सुर्ख़ी बता रही है कि तकलीफ़ ज़रूर है।”

इन का लहजा फटा हुआ था। आवाज़ इतनी बुलंद थी कि कमरा गूंज उठा।

ये कहना था कि देवी ने और ज़ोर ज़ोर से चिल्लना शुरू कर दिया और सफ़ैद साड़ी में उस की टांगें इज़्तिराब का बेपनाह मुज़ाहरा करने लगीं।

विलेन साहब आगे बढ़े और बड़ी हमदर्दी के साथ अपनी सख़्त कमर झुका कर देवी से पूछा। “जलन महसूस होती है या चुभन!”

एक और साहिब जो अपने सोलह हैट समेत कमरे में अभी अभी तशरीफ़ लाए थे, आगे बढ़ के पूछने लगे। “पपोटों के नीचे रगड़ सी महसूस तो नहीं होती।”

देवी की आँख सुर्ख़ होरही थी। पपोटे मलने और आँसूओं की नमी के बाइस मेले मेले नज़र आरहे थे। चितवनों में से लाल लाल डोरों की झलक चक में से ग़ुरूब-ए-आफ़ताब का सुर्ख़-सुर्ख़ मंज़र पेश कर रही थी। दाहिनी आँख की पलकें नमी के बाइस भारी और घनी होगई थीं, जिस से उन की ख़ूबसूरती में चार चांद लग गए थे। बाहें ढीली करके देवी ने दुखती आँख की पतली नचाते हुए कहा।

“आं.... बड़ी तकलीफ़ होती है.... हाय.... ऊई!” और फिर से आँख को गीले रूमाल से मलना शुरू कर दिया।

स्याह-ओ-सफ़ैद मूंछों वाले साहब ने जो कोने में बैठे थे, बुलंद आवाज़ में कहा। “इस तरह आँख ना रगड़ो, ख़ाली पीली कोई और तकलीफ़ हो जाएगा।”

“हाँ, हाँ........ अरे, तुम फिर वही कर रही हो।” फटी आवाज़ वाले नौजवान ने कहा।

विलेन जो फ़ौरन ही देवी की आँख को ठीक हालत में देखना चाहते थे, बिगड़ कर बोले। “तुम सब बेकार बातें बना रहे हो........ किसी से अभी तक ये भी नहीं हुआ कि दौड़ कर डाक्टर को बुला लाए........ अपनी आँख में ये तकलीफ़ हो तो पता चले।”

ये कह कर उन्हों ने मुड़ कर खिड़की में से बाहर गर्दन निकाली और ज़ोर ज़ोर से पुकारना शुरू किया। “अरे........ कोई है........ कोई है? गुलाब? गुलाब!”

जब उन की आवाज़ सदा ब-सहरा साबित हुई तो उन्हों ने गर्दन अंदर को कर ली और बड़बड़ाना शुरू कर दिया। “ख़ुदा जाने होटल वाले का ये छोकरा कहाँ ग़ायब हो जाता है........ पड़ा ऊँघ रहा होगा स्टूडीयो में किसी तख़्ते पर। मरदूद नाबकार।”

फिर फ़ौरन ही दूर स्टूडीयो के उस तरह गुलाब को देख कर चिल्लाये, जो उंगलीयों में चाय की प्यालियां लटकाए चला आरहा है। “अरे गुलाब....गुलाब!”

गुलाब भागता हुआ आया और खिड़की के सामने पहुंच कर ठहर गया। विलेन साहब ने घबराए हुए लहजा में उस से कहा। “देखो! एक गिलास में पानी लाओ। जल्दी से....भागो!”

गुलाब ने खड़े खड़े अंदर झांका, देखने के लिए कि यहां गड़बड़ क्या है.... इस पर हीरो साहब ललकारे “अरे देखता किया है.... ला, ना क्लास में थोड़ा सा पानी.... भाग के जा, भाग के!”

गुलाब सामने, टीन की छत वाले होटल की तरफ़ रवाना होगया। देवी की आँख में चुभन और भी ज़्यादा बढ़ गई और उस की बनारसी लँगड़े की कैरी ऐसी नन्ही मुन्नी ठोढ़ी रोते बच्चे की तरह काँपने लगी और वो उठ कर दर्द की शिद्दत से कराहती हुई सोफे पर बैठ गई। दस्ती बटोई से माचिस की डिबिया के बराबर एक आईना निकाल कर उस ने अपनी दुखती आँख को देखना शुरू कर दिया। इतने में मुंशी साहब बोले। “गुलाब से कह दिया होता........ पानी में थोड़ी सी बर्फ़ भी डालता लाए!”

“हाँ, हाँ, सर्द पानी अच्छा रहेगा।” ये कह कर विलेन साहिब खिड़की में से गर्दन बाहर निकाल कर चिल्लये। “गुलाब.... अरे गुलाब.... पानी में थोड़ी सी बर्फ़ छोड़ के लाना।”

इस दौरान में हीरो साहिब जो कुछ सोच रहे थे, कहने लगे “मैं बोलता हूँ कि रूमाल को सांस की भाँप से गर्म करो और उस से आँख को सैनिक दो.... क्यों दादा?”

“एक दम ठीक रहेगा!” स्याह-ओ-सफ़ैद मूंछों वाले साहब ने सर को इस्बात में बड़े ज़ोर से हिलाते हुए कहा।

हीरो साहिब खूंटियों की तरफ़ बढ़े। अपने कोट में से एक सफ़ैद रूमाल निकाल कर देवी को सांस के ज़रीये से उस को गर्म करने की तरकीब बताई और अलग हो कर खड़े होगए। देवी ने रूमाल ले लिया और उसे मुँह के पास ले जा कर गाल फुला फुला कर सांस की गर्मी पहुंचाई, आँख को टकोर दी मगर कुछ इफ़ाक़ा नहीं हुआ।

“कुछ आराम आया?” सोलह हैट वाले साहब ने दरयाफ़्त किया।

देवी ने रूनी आवाज़ में जवाब दिया। “नहीं.... नहीं.... अभी नहीं निकला.... मैं मर गई!.... ”

इतने में गुलाब पानी का गिलास लेकर आगया। हीरो और विलेन दौड़ कर बढ़े और दोनों ने मिल कर देवी की आँख में पानी चुवाया। जब गिलास का अपनी आँख को ग़ुसल देने में ख़त्म होगया, तो देवी फिर अपनी जगह पर बैठ गई और आँख झपकाने लगी।

“कुछ इफ़ाक़ा हुआ।”

“अब तकलीफ़ तो नहीं है?”

“कंकरी निकल गई होगी।”

“बस थोड़ी देर के बाद आराम आजाएगा!”

आँख धुल जाने पर पानी की ठंडक ने थोड़ी देर के लिए देवी की आँख में चुभन रफ़ा करदी, मगर फ़ौरन ही फिर से इस ने दर्द के मारे चिल्लाना शुरू कर दिया।

“क्या बात है?” ये कहते हुए एक साहब बाहर से अंदर आए और दरवाज़े के क़रीब खड़े होकर मुआमले की एहमीयत को समझना शुरू कर दिया।

नौवारिद कुहना साल होने के बावजूद चुसत-ओ-चालाक मालूम होते थे। मूंछें सफ़ैद थीं, जो बीड़ी के धोईं के बाइस स्याही माइल ज़र्द रंगत इख़्तियार कर चुकी थीं, उन के खड़े होने का अंदाज़ बता रहा था कि फ़ौज में रह चुके हैं।

स्याह रंग की टोपी सर पर ज़रा इस तरफ़ तिरछी पहने हुए थे। पतलून और कोट का कपड़ा मामूली और ख़ाकसतरी रंग का था। कूल्हों और रानों के ऊपर पतलून में पड़े हुए झोल इस बात पर चुगु़लीयाँ खा रहे थे कि उन की टांगों पर गोश्त बहुत कम है। कालर में बंधी हुई मैली नकटाई कुछ इस तरह नीचे लटक रही थी कि मालूम होता था, वो उन से रूठी हुई है, पतलून का कपड़ा घुटनों पर खिच कर आगे बढ़ा हुआ था, जो ये बता रहा था कि वो इस बेजान चीज़ से बहुत कड़ा काम लेते रहे हैं, गाल बुढ़ापे के बाइस बह पिचके हुए, आँखें ज़रा अंदर को धंसी हूईं, जो बार बार शानों की अजीब जुंबिश के साथ सुकेड़ ली जाती थीं।

आप ने काँधों को जुंबिश दी और एक क़दम आगे बढ़ कर कमरे में बैठे हुए लोगों से पूछा “कंकर पड़ गया है क्या?” और इस्बात में जवाब पा कर देवी की तरफ़ बढ़े। हीरो और विलेन को एक तरफ़ हटने का इशारा करके आप ने कहा। “पानी से आराम नहीं आया.... ख़ैर.... रूमाल है किसी के पास?”

निस्फ़ दर्जन रूमाल उन के हाथ में दे दिए गए। बड़े ड्रामाई अंदाज़ में आप ने इन पेश-करदा रूमालों में से एक मुंतख़ब किया, और उस का एक किनारा पकड़ कर देवी को आँख पर से हाथ हटा लेने का हुक्म दिया।

जब देवी ने उन के हुक्म की तामील की, तो उन्हों ने जेब में से मदारी के से अंदाज़ में एक चरमी बिटवा निकाला और इस में से अपना चशमा निकाल कर कमाल एहतियात से नाक पर चढ़ा लिया। फिर चश्मे के शीशों में से देवी की आँख का दूर ही से एकड़ कर मुआइना किया। फिर दफ़अतन फ़ोटोग्राफ़र की सी फुर्ती दिखाते हुए आप ने अपनी टांगें चौड़ी कीं और जब उन्हों ने अपनी पतली पतली उंगलियों से देवी के पपोटों को वा करना चाहा तो ऐसा मालूम हुआ कि वो फ़ोटो लेते वक़्त कैमरे का लेंस बंद कररहे हैं।