Friday, 17 March 2017

अर्ज़-ए-मुरत्तिब-२ सआदत हसन मन्टो saadat hasan manto

“मुस्तनद और जामे कुल्लियात-ए-मंटो” की दूसरी जिल्द मंटो के उन अफ़्सानों पर मुश्तमिल है जो उन्हों ने बंबई से पाकिस्तान हिज्रत और अपनी मौत तक के दौरानीये में तहरीर किए और उन की ज़िंदगी में ही किताबी सूरत में इशाअत पज़ीर भी हुए। सआदत हसन मंटो की ज़िंदगी का ये दौरानिया जहां बाअज़ ज़ाती हवालों से कुछ ज़्यादा ख़ुशकुन नहीं वहां फ़न्न-ए-अफ़्साना निगार के हवाले से बाएतिबार-ए-कैफ़ियत और बाएतिबार-ए-कम्मियत निहायत ज़रख़ेर है। इस दौरानिया में मंटो ने कम-ओ-बेश 170 अफ़साने तहरीर किए जो ज़ेर-ए-नज़र कुल्लियात की जिल्द दोम और जल्द सोम में मुरत्तब किए गए हैं।

सआदत हसन मंटो के कुल्लियात की ज़ेर-ए-नज़र जिल्द इस लिए भी एहमीयत की हामिल है कि इस में उन के निहायत आला अफ़साने शामिल हैं। इस जिल्द के अफ़सानों में उन का फ़न अपने उरूज पर नज़र आता है और इस जिल्द की आख़िरी किताब "फुंदने" में शामिल बाअज़ अफ़साने उन के उस्लूब और ज़बान-ओ-बयान में आने वाली तबदीलीयों के भी शाहिद हैं। मंटो की तहरीरों से दिलचस्पी रखने वाले किसी फ़र्द के लिए इस जिल्द से गुरेज़ मुम्किन नहीं।

इस जिल्द का आग़ाज़ सआदत हसन मंटो की किताब ठंडा गोश्त (1950-ई-) से होता है जिस में कुल आठ अफ़साने शामिल थे। बादशाहत का ख़ातमा (1950-ई-) में ग्यारह ख़ाली बोतलें, ख़ाली डिब्बे (1950-ई-) में तेरह नमरूद की ख़ुदाई (1950-ई-) में बारह, बादशाहत का ख़ातमा(1950-ई-) में ग्यारह, यज़ीद (9151-ई-) में नौ, सड़क के किनारे (1953-ई-) में ग्यारह, सरकण्डों के पीछे (1954-ई-) में तेरह और फुंदने (1955-ई-) में कुल ग्यारह अफ़साने शामिल है। मंटो का एक अफ़साना ऊपर नीचे और दरमयान उन के मज़ामीन के मजमुए में शामिल था उसे भी इस जिल्द में जगह दी गई है। यूं इस किताब में कुल नव्वे (90) अफ़साने शामिल हैं।

“मुस्तनद और जामे कुल्लियात-ए-मंटो” की पहली तीन जिल्दों की तकमील में मेरे दोस्त डाक्टर आबिद सय्याल ने निहायत ख़ुलूस और मोहब्बत से मेरी मदद की और बरवक़्त निशानदही कर के मुझे अपनी कई अग़लात की तसीह का मौक़ा दिया। इन का तआवुन मेरे लिए निहायत अहम रहा। लफ़्ज़ शुक्रिया उन की मुआवनत के लिए नाकाफ़ी है।

अपने भाई अंजुम कामरान का शुक्रिया अदा करना ज़रूरी समझता हूँ कि इस ने तबाअत के मराहिल को निहायत हिम्मत और लगन से आसान बनाया। मुहम्मद आमिर राना के लिए शुक्रिया का लफ़्ज़ कम पड़ता है कि उस की हिम्मत और मोहब्बत ही ने मुझे एक अज़ीम लिखने वाले के काम को मुरत्तब करने के अज़्म को अमलीजामा पहनाने के काबिल बनाया ।

आख़िर में अपनी शरीक-ए-हयात फमीदा बानो का तज़्किरा भी लाज़िम है कि वो हमेशा मेरे तख़लीक़ी और इल्मी कामों में ख़ामोश मुहर्रिक और अव्वलीन नक़्क़ाद का दर्जा रखती है। अपने बच्चों रोहा अमजद, हारिस अमजद, सूफिया अमजद और कामिल अमजद के ज़िक्र को शामिल किए बग़ैर इस अर्ज़-ए-गुज़ारश्त को नामुकम्मल ख़याल करता हूँ कि मैंने जो शामें उन के लिए बचा कर रखी थीं वो इस काम की नज़र हो गईं।

इस काम के बारे मैं क़ारेईन की राय का इंतिज़ार रहेगा कि किसी भी काम की तकमील उसी वक़्त होती है जब वो अपने हतमी मुक़ाम तक पहुंच जाता है इस काम में कई एक खामियां और गलतियां मौजूद हैं। आप की जानिब से उन की निशानदही मेरे लिए इस कुल्लियात की आइन्दा इशाअत में मुआविन होगी।

अमजद तुफ़ैल

25 जुलाई 2012 -ई- 

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